Saturday, December 28, 2013

वीकेंड पोस्ट के 28   दिसंबर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम


डर के आगे जीत है... किसकी जीत?
विज्ञापन कहता है - डर के आगे जीत है। काहे की जीत भैया? दाल पतली है एकदम! मैं आजकल बहुत डरा हुआ हूं। डर का आलम यह है कि मैं कुछ भी नहीं करता। किसी को कुछ नहीं कहता।  
-फारुख अब्दुल्ला से इत्तेफ़ाक रखने के बाद भी कुछ कमेंट नहीं करता, कहीं मुझे भी माफी नहीं मांगनी पड़ जाए। 
-दफ्तर में किसी को काम नहीं करने या खराब काम के लिए डांटता-डपटता नहीं। कहीं कोई यौन प्रताडऩा का आरोप न      लगा दे। 
-किसी को अच्छे काम के लिए सराहना के बोल नहीं बोलता, क्योंकि कहीं कोई मुझे दक्षिणपंथी करार न दे दे। 
-कहीं भाषण देने जाना हो तो भाषण लिखकर ले जाता हूं, कहीं कुछ अलग बात निकल जाए तो कोई वामपंथ विरोधी न कह दे, क्योंकि प्रगतिशीलता की यही शाश्वत निशानी है कि वामपंथ से नाता जुड़ा रहे। 
- किसी की भी बात को अनसुना नहीं करता, क्योंकि मुझ पर अल्पसंख्यकों की अनसुनी का इल्जाम लग चुका है। 
-मैंने ऑरकुट से अकाउंट यह कहकर  डीलीट कर दिया है। वास्तव में वहां कई लड़कियां और महिलाएं मेरी दोस्त थीं और मुझे आजकल बेहद डर लगा रहता था उनसे। किसी का प्रोफाइल विजिट करने का आरोप न लग जाए। 
-आजकल फेसबुक पर अपना स्टेटस नहीं लिखता, क्या पता किसी स्त्री की  भावनाएं आहत हो जाएं और वह छेड़छाड़ का आरोप लगा दे। फेसबुक पर किसी फ्रेंड को अनफ्रेंड नहीं करता, क्या पता कब वह मुझ पर जात-पात का आरोप लगाकर थाने चला जाए !
-व्हाट्स अप्प पर कोई कमेंट नहीं लिखता क्योंकि मुझे बताया गया है कि उस पर पुलिस की निगरानी  है। 
-राजेंद्र यादव की सहयोगी ज्योति कुमारी का मामला हो या तरुण तेजपाल का, खुर्शीद अनवर की आत्महत्या हो या मधु किश्वर के भाई का मामला, मैं एकदम चुप रहता हूं। आसाराम पर कुछ कहा, न नारायण सांई पर। 
-जब बड़े-बड़े नेता गे-लेस्बियन के पक्ष में बोल रहे थे, तब भी मैंने नहीं कहा कि मैं लौंडेबाजी का समर्थन नहीं करता, वरना वे मुझे दकियानूसी समझते। 
आप पार्टीवालों की नौटंकी पर लानत भेजना चाहता हूं, पर भेजूं कैसे? वे मुझे अबुद्धिजीवी कह देंगे तो? राहुल गांधी के नेक इरादों पर कुछ कहना यानी कांग्रेसी कहलाने का फतवा और मोदी की तारीफ की तो फासिस्ट! यह कहूं कि भारत के इतिहास में दंगा केवल गुजरात में ही हुआ तो मैं सही? जीवन में इतने सारे अगर, मगर, किन्तु, परन्तु, यदि जैसे शब्द आ गए हैं कि सही बात कहने की हिम्मत जुटा पाना कठिन  लगता है। मेरे लिए घोषणा कर पाना कठिन है कि मैं पुरुषवादी हूं या स्त्रीवादी? वामपंथी हूं या दक्षिणपंथी? प्रगतिशील हूं या गैर प्रगतिशील? आधुनिकता का पक्षधर हूं या अपनी महान परम्पराओं का? सच कहो तो लानत, झूठ बोलना मुश्किल! 
मैं देश के हजारों कानूनों और प्रचार तंत्र के बोझ से डरा हुआ विवश भारतीय हूं, जिसकी अहमियत यही है कि उसके लिए नारे बनाए जाते हैं - डर के आगे जीत है!
-प्रकाश हिन्दुस्तानी
वीकेंड पोस्ट के 28   दिसंबर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम

Saturday, December 21, 2013

ईमान की कसम कौन खाता है?

वीकेंड पोस्ट के 21  दिसंबर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम
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अब कोई ईमान की कसम नहीं खाता। 
एक ज़माना था, जब लोग ईमानदारी कसम खाते थे। 
--''सच कह रहा है क्या?''
--''हाँ, ईमान से'' या फिर ''हाँ, ईमान  की कसम।''
लोगों को लगता था कि उनके पास ईमान है तो सब कुछ है. जिसका ईमान गया वह 'बे-ईमान' माना  जाता था।  बे-ईमान होना यानी घृणास्पद होना।  

मैं  कंफ्यूज़  हूँ। अब   ईमानदारी की क्या परिभाषा है? और बेईमानी की ? सबकी  अपनी अपनी परिभाषाएं  हैं।मेरे एक मित्र की धारणा  है कि जिसकी भावनाएं शुद्ध न हो वह बेईमान।   कुछ लोग कहते हैं कि जो बेईमानी करते हुए नहीं पकड़ा जाए, वह ईमानदार ! कोई कहता है जो आटे में नमक बराबर बेईमानी करे वह ईमानदार ! कोई कहता है  जिसकी बेईमानी से किसी को नुकसान न हो, वह ईमानदार।  कोई कहता है जिसकी बेईमानी में उसका निजी लाभ न होता हो वह ईमानदार। कोई कहता है जो विशुद्ध ईमानदारी के साथ बेईमानी करे, वह ईमानदार। कोई कहता है जो वफादार हो, वह ईमानदार। कोई कहता है कि ईमानदार नज़र आये, वाही ईमानदार। कोई कहता है कि ईमानदार वह है जो खुद बेईमानी न करे, और न दूसरे को बेईमानी करने दे। कोई कहता है ईमानदार यानी हरिश्चंद्र ! युधिष्ठिर को भी कई लोग बेईमान मानते हैं क्योंकि उन्होंने  आधा झूठ बोला था। कुछ लोग कहते हैं कि अरविंद केजरीवाल ईमानदार हैं, कोई मानता है कि अन्ना को ईमानदारी की मिसाल माना जा सकता है। 

बहुत से लोग मानते हैं वफादार होना ईमानदार होना है।  किसी की राय में सत्यनिष्ठ होना ईमानदार होना है।  कोई कहता है कि  चोरी-छल-कपट से दूर रहना ईमानदार होना है।  किसी का कहना है कि जो भ्रष्ट आचरण से दूर हो, वह ईमानदार है। कई लोग कामचोरों को बेईमान मानते हैं क्योंकि 'कामचोर' में भी 'चोर' छुपा है। मैंने अपने जीवन में कई बेईमानों को देखा है जो कई ईमानदारों से बेहतर कहे जा सकते हैं। दूसरी तरफ ऐसे भी कई ईमानदार देखे हैं , जिनके सामने भ्रष्टतम व्यक्ति भी शरमा जाये। कुछ अफसर खुद बड़े ईमानदार होते हैं और अपने मातहतों को भी ईमानदार रहने के लिए मज़बूर कर देते हैं, जिन्हें कोई भी फूटी आँखों पसंद नहीं करता।  कई अफसर ऐसे होते हैं जो खुद तो ईमानदार हैं लेकिन वे दूसरों को बेईमानी से नहीं रोकते। उनकी लोग बहुत इज़ज़त करते हैं, बेईमान भी और ईमानदार भी।  बेईमान सोचते हैं कि खुद नहीं खाता  तो क्या, दूसरों को 'तंग' तो नहीं करते। ईमानदार सोचते हैं कि बेचारा क्या करे, खुद तो भ्रष्ट नहीं है। 

ईमानदारों को कितनी श्रेणियों में बांटा जा सकता है? 1.   'ईमानदार' ईमानदार -- जो खुद भी ईमानदार  हो और किसी को बेईमानी न करने दे। ये लोग ईमानदारों को  को संरक्षण भी देते हैं।  2  .  ईमानदार बेईमान -- जो खुद भले ही  बेईमान हो पर बेईमानी भी करे तो   ईमानदारी से। (यानी बांटकर खाये). बेईमानों से वसूली करते हैं, ईमानदारों को बख्श देते हैं।   3.  बेईमान ईमानदार -- जो खुद को ईमानदार दिखाता  हो, पर मौका मिलते ही चौका मारने में बाज नहीं आता हो। ये न तो ईमानदारों के संरक्षक होते हैं, न बेईमानों के।  4 . 'बेईमान' बेईमान -- जो खुद भी बेईमानी करे और दूसरों की बेईमानी में से भी हिस्सा ले। 5 . 'परम बेईमान'  बेईमान -- जो खुद बेईमान हो और बेईमानों से तो पैसा खाता  ही हो, ईमानदारों से भी खाता  हो। 

अब ईमान की कसम कोई नहीं खाता!

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
(वीकेंड पोस्ट के 21  दिसंबर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम)

Friday, December 20, 2013

हॉर्न प्लीज! ओ.के.? बिल्कुल नहीं !

वीकेंड पोस्ट के 14  दिसंबर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम



हमारे शहर की सड़कों पर जिस तरह वाहन चलाए जाते हैं और हॉर्न जिस तरह से बजाए जाते हैं, उससे लगता है इंदौर के लोग या तो बहरे हैं या पहले दर्जे के  निसडल्ले! हॉर्न बजाने वालों को पता ही नहीं कि बेवजह हॉर्न बजाना कितना बड़ा सामाजिक अपराध है। यह दूसरे वाहन के चालक की बेइज्जती भी है (अबे हट! मुझे जाने दे!)। आमतौर पर लोग यहां हॉर्न लगातार इस तरह बजाते हैं जैसे एकदम छोटे बच्चे मुंह से पीं-पीं की आवाज करते हुए  ट्राइसिकल चलाते हैं। कई युवा शायद इसलिए हॉर्न बार-बार बजाते हैं कि देखो हमारे बाप ने हमें ये गाड़ी दिल दी है। कई वाहन चालकों को लगता है कि जब गाड़ी में हॉर्न लगाया गया है, तो उसे बजाना जरूरी होता होगा!
   वास्तव में हॉर्न का उपयोग केवल चेतावनी के लिए होना चाहिए। किसी के भी घर के सामने अकारण हॉर्न बजाना अपराध है। चौकीदार को या किसी अन्य को बुलाने के लिए हॉर्न बजाना हम अपना हक समझते हैं। हॉर्न कोई एक्सीलेटर या गियर चेंजिंग डिवाइस नहीं है। उन्नत देशों में हॉर्न ऐसा उपकरण है, जिसका इस्तेमाल केवल इमर्जेंसी में ही होता है। वहां अकारण हॉर्न बजाने पर कड़ी सजा और दंड का प्रावधान है। कई देशों में रात के समय हॉर्न बजाना ही प्रतिबंधित है, (वहां रात में केवल डिपर का ही प्रयोग हो सकता है)। हम  हॉर्न को स्टीयरिंग की तरह समझते हैं, स्टीयरिंग घुमाना और हॉर्न बजाना समान  समझते हैं। वाहनों पर म्यूजिकल हॉर्न नहीं लगाए जा सकते, न ही प्रेशर हॉर्न लगाए जा सकते हैं। हमारे यहां तो कई दो पहिया वाहनों में भी प्रेशर हॉर्न और साइरन मिल जाएंगे। कई वाहनों में कुो के भौंकने की आवाज, कहीं बच्चे के रोने-चीखने की आवाज वाले हॉर्न भी लगे हैं, जो हमारी असभ्यता और बददिमागी के प्रतीक हैं। 'नो हॉर्न जोन' (अस्पताल शिक्षा संस्थान के दायरे) में भी लोग हॉर्न बजाने से बाज नहीं आते। 
मेरा बस चले और ऐसे हॉर्न बनने लगें तो मैं अपनी गाड़ी में इस तरह की आवाज के हॉर्न लगवाना चाहूंगा: 
 --'साले गधे, बिना बात के यों हॉर्न बजा रहा है!'
--'क्या तेरे बाप ने नई गाड़ी दिलाई है?'
--'क्या कभी हॉर्न बजाया नहीं?'
--'कमीने-बेवड़े, तू या हमें बहरा समझता है?'
--'क्या तेरे को मरने की जल्दी है हरामी के पिल्ले?'
--'क्या तेरी गर्ल फ्रेंड बुला रही है तो ऐसे बजा रहा है?'
--'बहुत रेंक रहा है तो क्या तू दुलत्ती भी मारेगा?'
--'बहुत जोर से बार-बार पाद यों रहा है बे?'
काश! इस तरह के हॉर्न बनाने लगें तो मैं भी अपनी भड़ास निकालूं। 

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
(वीकेंड पोस्ट के 14  दिसंबर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम)

Sunday, December 08, 2013

वीकेंड पोस्ट के 7 दिसंबर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम


बच के  रहना !

समाजवादी पार्टी के  सांसद नरेश अग्रवाल ने  कहा है कि लोग इस कदर  डर  गए हैं कि झूठे  प्रताड़ना मामलों से बचने  के लिए निजी संस्थानों में महिला कर्मचारी नियुक्त ही नहीं करना चाहते। उन्हें डर लगता है कि  क्या पता, कब कोई महिला झूठे मामले में फंसा दे।  प्रख्यात फेमिनिस्ट और एडिशनल सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने कहा   है कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ न्यायमूर्तिगणों ने प्रमुख न्यायमूर्ति से प्रार्थना  की है कि सुप्रीम कोर्ट की तमाम महिला कर्मचारियों को कहीं और भेज दिया जाए और भविष्य में किसी भी महिला को इंटर्न न रखा जाए। हाल यह है कि लोगों ने महिलाओं की मदद करना ही बंद कर दिया है, कोई महिला कितने भी संकट में हो, उसकी मदद गले का फंदा बन सकती है, यह धारणा बनाने लगी है। इंदौर की एक जानलेवा घटना  याद है आपको ? चंचल राठौर नामक एक किराएदारिन ने मकान-मालिक रूपकिशोर अग्रवाल नामक व्यवसायी के खिलाफ़ बलात्कार की झूठी रिपोर्ट दर्ज करा दी  थी, जिस पर  रूपकिशोर अग्रवाल को गिरफ्तार किया गया।  बाद में जमानत पर छूटने के बाद रूपकिशोर अग्रवाल ने आत्महत्या कर ली, जिसके बाद झूठी शिकायत करनेवाली महिला पर मुक़दमा चला और कोर्ट ने उसे चार साल की कैद की सजा दी। पूरा अग्रवाल  परिवार लम्बे समय तक 'कानूनी आतंकवाद' झेलता रहा और न्याय से वंचित रहा क्योंकि कोई भी फैसला उन्हें जीवन नहीं लौटा सकता था। 
भारतीय कानून महिलाओं को सुरक्षा देने के नाम पर 'महिला आतंकवाद का आधिकारिक रूप' बनते जा रहे हैं।  कानून सभी के लिए समान  होना चाहिए, और अगर महिलाएं पीछे हैं तो उन्हें आगे लाने का प्रयास भी होना चाहिए।  लेकिन महिलाओं को आगे लाने  के नाम पर कुछ महिला संगठन जो रवैया अपनाये हुए हैं, उससे महिलाओं का सम्मान और न्याय तो शायद ही बढ़े, पर  महिलाओं का आतंक ज़रूर बढ़ेगा। तरुण तेजपाल के मामले में कई महिला संगठनों का दोहरा चरित्र सामने आ गया, जब कुछ महिला संगठनों की नेताओं ने तेजपाल का बचाव करने की कोशिश की।  'तहलका' की एमडी शोमा  चौधरी  के घर की नाम  पट्टिका  को  पोतने को लेकर ये महिला संगठन ऐसे  बिफरे, मानो शोमा का ही मुंह  काला कर दिया गया हो। ये संगठन तेजपाल को क्यों बचाते रहे? 

प्राइमरी स्कूल तक में झूठी चुगली करनेवाले बच्चे को शिक्षक अपने स्तर  पर समझाते हैं, लेकिन कोई महिला अगर झूठी शिकायत कर दे और यह साबित भी जाए कि शिकायत झूठी है तब भी उसके खिलाफ कोई प्रावधान नहीं ? इंदौर के रूपकिशोर अग्रवाल की  आत्महत्या के बाद भी उस महिला का कुछ नहीं हुआ, मामला आत्महत्या के लिए उकसाने का बना, झूठे केस का नहीं। महिला द्वारा  शिकायत करने की समय सीमा का भी कोई बंधन नहीं है, शिकायत  कभी भी की जा सकती है और शिकायत सही पाई जाए तो महिला को एक लाख तुरंत? महिला का नाम गोपनीय रखने का क़ानून है, यानी अपराधी का चेहरा भी उजागर नहीं  होगा,लेकिन अगर वह पुरुष है तो सरे राह जूते तय !

अब हाल यह है कि भारत में  'फ्री मैन  क्लब' बनने शुरू हो गए हैं, इन्हें नाम दिया गया है --  'मैन गोइंग देयर ऑन वे' . इसकी वेबसाइट भी है -www.mgtow.com . इसके अनुसार घरेलू हिंसा के ८० फ़ीसदी मामले फ़र्ज़ी होते हैं ; बलात्कार के जाधिकतर मामलों में पीड़ित पुरुष होते हैं , न कि महिला ; इस वेबसाइट में झूठे मामलों में फसाये गए लोगों को कानूनी लड़ाई लड़ने का रास्ता भी बताया गया है। यह भी जानकारी दी गयी है महिलाओं को किस तरह से ''लाइफ चेंजिग लाइ'' यानी जीवन को बदलने वाले झूठ का प्रशिक्षण दिया जाता है। 

आज हमारे अपने जीवन मूल्यों की जगह क़ानून ने ले ली है।  माता बहनों को सम्मान की बात अब बकवास लगती है। अब आप किसी बच्चे या बच्ची को पीठ  शाबासी से नहीं थपथपा सकते --क्या पता, पाँच -दस साल बाद वह जाकर शिकायत कर दे तो आप गए आईपीसी की धारा 354 में। 
प्रकाश हिन्दुस्तानी 
(वीकेंड पोस्ट के 7 दिसंबर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम)

Saturday, November 30, 2013

वीकेंड पोस्ट के 30  नवम्बर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम




सोशल मीडिया या अनसोशल मीडिया ?

जिसे सोशल मीडिया कहा जाता है उसमें ज़्यादातर सामग्री  या तो पर्सनल   है अथवा एंटी सोशल। सोशल तो दो-चार फीसद भी नहीं।  पर सोशल मीडिया का   जिक्र ऐसे होता है मानो ज्ञान की गंगोत्री वहीँ से हो रही हो। लोग-लुगाइयां लिखते हैं  ''फीलिंग स्लीपी, फीलिंग हंग्री, फीलिंग वावो !'' या फिर ''आज पोहे का आनंद लिया, आज पित्ज़ा खाया, आज बियर पी ''. तुम्हें कुछ महसूस हो रहा है वह समाज के लिए, दूसरों के लिए नहीं है.  मुझे क्या फर्क पड़ता है अगर किसी ने पोहे खाये, लड्डू बाफले सूते या फिर वह 2 नंबर जाने  के लिए तड़प रहा है। सोशल साइट्स चोट्टों का अंतर्राष्ट्रीय अड्डा बन चुका; जहाँ आप दुष्यंत कुमार से लेकर त्रिलोचन शास्त्री तक की पंक्तियाँ किसी के भी नाम से देख सकते हैं।  कई लोग तो इसी आस में रहते हैं कि कब कोई शानदार पोस्ट दिखे और वे उसे कट पेस्ट कर  के अपने नाम से चेंपें। एक ही 'अनमोल वचन ' (या कुविचार) के अनेकानेक जनक वहाँ मिल जाते हैं। जैसे जंगल में सांप-बिच्छू और लोमड़ी-सियार ही नहीं, खरगोश-हिरन भी होते हैं, वैसे ही सोशल  साइट्स पर भले और बुद्धिमानों के साथ  कम्युनल, जातिवादी, धर्मांध, मर्दवादी , औरतवादी, गालीबाज़ भी  मिल जाते हैं। यहाँ नकली विचारोत्तेजना है, छद्म ज्ञान का संसार और  कच्चे विचारों का जमावड़ा है।   यहाँ के कई पुरुषों को मुगालता है कि वे दुनिया के सबसे हैंडसम मर्द हैं और कई लुगाइयों को लगता है कि उन्होंने  इस धरती पर आकर सम्पूर्ण सृष्टि पर महान एहसान कर डाला है। 

नयी शोधों में यह बात खुलकर सामने आई हैं कि ये साइट्स नार्सिसिज़म, यौनाचार, अहंकारी भाव औररोतलेपन  को तो बढ़ा ही रही हैं , लोगों को वास्तव में घुलने-मिलने  से भी रोक रही हैं।  ये सोशल साइट्स वास्तव में सोशल नहीं, असत्य घटनाओं के प्रचार का भी मुख्य जरिया है. इस साइट्स का अत्यधिक उपयोग करनेवाले लोगों के सामने मनसियक परेशानियां बढ़ जाती हैं. कई लोगों को इस बात का अंदाज़ ही नहीं है कि सोशल साइट्स पर आपका कुछ भी निजी नहीं होता, सारी  जानकारियां सार्वजनिक होती हैं और कोई भी पोस्ट हटा देने मात्र से जानकारियां गायब नहीं हो जातीं। यूएसए में  ऐसी साइट्स  अभियान चलते रहते हैं।  31 मई को बाकायदा  'फेसबुक छोड़ो दिवस' मनाया गया और  करीब 40 हज़ार से भी ज्यादा  लोगों ने इसकी शुरुआत भी कर दी . पाश्चात्य देशों में लोगों के जीवन में खुलापन अवश्य है,  लेकिन अपनी निजता की रक्षा करना वे हमसे बेहतर समझते हैं .


अब भारत में सोशल वेबसाइट्स में दी गयी जानकारियों का कानूनी पहलू देखने में आने लगा है।  विवाहेतर सम्बन्धों के मामले में यहाँ दी गयी जानकारियों को कोर्ट में सबूतों के रूप में रखा जा चुका  है. फेसबुक पर दी गई जानकारियों की मदद से धोखाधड़ी के मामले भी आ चुके हैं और आत्महत्या तक हो चुकी है।  सोचकर अपनी निजी जानकारियों को सोशल साइट्स पर प्रकाशित करने का प्रशिक्षण भारत में दिया जाना ज़रूरी है, क्योंकि कई लोग बगैर नियम पढ़े ही अपनी जानकारी वहाँ दे देते हैं और बाद में  दुखी होते हैं। फेसबुक के करीब 25 प्रतिशत यूजर्स उसको प्राइवेसी सेटिंग्स को नहीं मानते और बड़ी संख्या में ऐसे यूजर्स हैं जिन्हें फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर अपनी प्राइवेसी को छुपाने की तकनीक नहीं आती। 85 प्रतिशत महिला यूजर्स फेसबुक के पुरुष मित्रों से परेशान हैं। पोर्नोग्राफी को बढ़ावा देने में भी फेसबुक का अहम् योगदान है क्योंकि यहाँ सेक्स से  की संख्या अन्य साइट्स से 90 प्रतिशत ज़यादा है। सोशल मीडिया के दुरूपयोग का भुक्तभोगी पूरा जम्मू और कश्मीर है, जहाँ आतंकवादी इनका उपयोग हिंसा  के लिए कर रहे हैं।  मुज़फ्फ़रनगर में भड़की हिंसा की  आग में घी डालने का काम भी इसी सोशल मीडिया ने किया था।  इस माध्यम से हिंसा को बढ़ावा देनेवालों को क्या दंड मिला? अगर दंड मिल भी गया तो क्या दंगे में मरनेवाले वापस आ जायेंगे?  
--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
(वीकेंड पोस्ट के 30  नवम्बर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम)

Saturday, November 23, 2013

वीकेंड पोस्ट के 23  नवम्बर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम



… बट,व्हा  शुड आइ डू ?


शिव खेड़ा  से लेकर  नरेन्द्र मोदी तक  एक ही डॉयलॉग सिखा हैं, --यस, आइ कैन, वी कैन। यानी मैं कर सकता हूँ, हम  कर सकते हैं। कर तो  सकते  हैं , पर मेरा सवाल है  … बट, व्हाय शुड आइ डू ? कर सकते हैं , पर करें क्यों? नहीं करना, हमारी मर्ज़ी ! करने को तो हम बहुत कुछ कर सकते हैं, पर करते हैं क्या? आप  कर सकते हो तो कर डालो , हमें नहीं करना, करना होता तो अब तक कर नहीं डालते?  हमारे पिताजी, दादाजी और  उनके भी पिताजी-दादाजी भी बहुत कुछ कर सकते थे, उन्होंने  करने लायक नहीं समझा होगा, नहीं किया;  तो हम भी नहीं ही करेंगे।

यस, आइ कैन , तो क्या कर डालूं ? मैं किसी की जेब काट सकता हूँ, किसी को चाकू मार  सकता हूँ, रास्ते चलती किसी स्त्री  को आँख मार सकता हूँ, फ़र्ज़ी वोट डाल सकता हूँ, चुनाव लड़ सकता हूँ , कार  से किसी को भी ठोक सकता हूँ , जेल जा सकता हूँ, गटर साफ़ कर सकता हूँ, हज़ारों अच्छे काम भी कर सकता हूँ और बुरे भी। यस, आइ कैन.… बट, क्यों करूँ ? इफ़ आइ कैन, डजन्ट मीन आइ शुड डू ! हर काम, जो आप कर सकते हो, करो क्यों ? नफा-नुकसान देखो, आगे-पीछे देखो, ऊँच-नीच देखो, अपना-पराया देखो;  फिर ये देखो कि उसको करने से झांकी कितनी जमती है, कैसी जमती है, और फिर आपको जमे तो कर डालो। 

कलाम साहब ने कहा, वे करते हैं; नरेन्द्र मोदी ने कहा, एक हद तक उन्होंने  भी कर दिखाया।  पर ये शिव खेड़ा जी और उनकी देखा-देखी हर कोई ये बात सिखाने  पर ही अड़ा  है कि तुम कर सकते हो, कर डालो।  शिव खेड़ा साहब, आप तो खड़े हुए थे ना चुनाव में , क्या तीर मार लिया? और क्या हुआ आपकी भारतीय राष्ट्रवादी समानता पार्टी का? आपके पिताजी बिजनेस मैं थे ना, आप भी बिजनेसमैन बन सकते थे , बन जाते।  बने क्यों नहीं? एलआईसी के एजेंट का काम भी किया था, और काम करते, अच्छा काम करते तो बन जाते वहाँ मैनेजर? तब कहते यस आइ कैन। खेड़ा जी 'यू कैन विन' की काफी सामग्री यहाँ वहाँ से ले सकते थे, तो उसके  ७३ प्रतिशत चुटकुले एवं सूक्तियाँ अमृत लाल की किताब 'एनफ़ इज़ एनफ़'  से ले  ली।  यू  कैन,एंड यू  डिड ! 

आम  हिन्दुस्तानी की तरह मेरा फार्मूला है --यस, आइ कैन , एंड ओनली समटाइम्स आइ डू।  कोई ज्ञान बांटने आता है तो मैं कहता हूँ, मैं हज़ारों काम कर सकता हूँ, पर करता नहीं, क्योंकि मैं हर काम के बारे में सोचता हूँ और सही लगता है तो करता हूँ।  यहाँ तक कि कई बार तो मैं यह भी सोचता हूँ कि इस बाते में सोचूँ या नहीं। 

आप क्या करते हैं?

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 

(वीकेंड पोस्ट के 23 नवम्बर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम)


Saturday, November 16, 2013

वीकेंड पोस्ट के 16  नवम्बर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम



      चुनाव चिह्न   हैं  या गृहस्थी का सामान !

आनेवाले चुनाव में ऐसे-ऐसे  चुनाव चिह्न  दिए गए हैं कि उनसे पूरी गृहस्थी  ही बस जाए ! हाँ, बेचारे बीजेपी-कांग्रेस, सपा-बसपा वालों को ज़रूर दिक्कत होगी, जिन्हें केवल  कमल, हाथ के पंजे, साइकिल और हाथी से काम चलाना  होगा।  असली मज़े तो निर्दलीय उम्मीदवारों के हैं, जिनके पास गृहस्थी का सामान भी है और पिकनिक का भी। वे अपने चुनाव चिह्न  को लेकर रोज़गार-धंधा भी चला सकते हैं। उनकी यह शिकायत हो सकती है कि उनकी पसंद के  काफी  सामान (चुनाव चिन्ह) पर  क्षेत्रीय पार्टीवाले  कब्ज़ा कर चुके हैं, लेकिन उन्हें राहत मिलेगी कि 55  राष्ट्रीय और क्षेत्रीय  पार्टियों के अलावा  इस देश में 537 (जी हाँ, पांच सौ सैंतीस) ऐसी पार्टियाँ भी हैं जो चुनाव आयोग के पास रजिस्टर्ड हैं (यह टिप्पणी छपते-छपते यह संख्या घट-बढ़ सकती है) इन पार्टियों के चुनाव चिह्न  निर्दलियों लड़नेवालों को दे दिए जाते हैं। 


हमारे यहाँ इस बार क्या क्या चुनावचिह्न हैं, देखिये तो ; यहाँ ब्लैक बोर्ड है, ऑटो रिक्शा है, फूलों  की टोकरीहै, सिलाई मशीन है, टेलीफोन, किताब, अल्मारी, ए सी, गैस सिलेण्डर जैसी उपयोगी चीज़ें हैं तो खाने के  ,बच्चों के लिए क्रिकेट का बल्ला, गुब्बारा, पतंग, टोप , शटल, बेल्ट,टीवी, बल्लेबाज़ जैसे निशान  हैं।  शिव सेना ने तीर कमान ले लिया हो, तीर तो हमारे पास है ही। भाई लोगों के लिए नारियल है, रास्ता दिखने के लिए बैटरी टार्च है, और पीने वालों की सेवा के लि कांच का (खाली) गिलास भी है। 

भारत में एक पार्टी का नाम 'आम आदमी पार्टी' है लेकिन उसने आम के बजाय झाडू  को चुनाव चिह्न  के रूप में पसंद किया है।  जबकि आम  पुडुचेरी की क्षेत्रीय पीएमके -पट्टली मक्कल काट्ची पार्टी का चुनाव चिह्न  है।  आम के अलावा केला, संतरा और अनन्नास भी चुनाव चिह्न   हैं। गरीबों का घर झोपड़ी और अमीरों का घर यानी बंगला, हवाई जहाज, ट्रेक्टर,बस,बैलगाड़ी,   ढोलक, नगाड़ा,  शेर, बैल, मुर्गा, फसल काटती महिला, उगता सूरज, हैण्ड पम्प, दूरबीन, टोपी, प्लग, कलम-दवात, कंघा, तीर, दो पत्ते,चश्मा,  निसरनी-सीढ़ी,घड़ी, किताब,फूल की पंखुड़ी, स्टार, तलवार-ढाल, छतरी, लड़का-लड़की के साथ ही कुर्सी भी चुनाव चिह्न  के रूप में मौजूद हैं। कुर्सी की लड़ाई लड़नेवाले नेता और पार्टियां   चुनाव चिह्न  के रूप में कुर्सी को पसंद क्यों नहीं करतीं, यह विचार का प्रश्न है।   एक ही चुनाव चिह्न  कई   क्षेत्रीय पार्टियों को देने का रिवाज भी है। 

पुछल्ला : अगर नेताओं के कर्मों को देखते हुए चुनाव चिह्न  का निर्धारण करना हो तो कुछ और चुनाव चिह्न भी हो सकते हैं जैसे नोट काउंटिंग मशीन, कंडोम,कमोड,  गर्भ निरोधक गोली, पिस्टल, ब्रा-पेंटी,  खंजर, विग, बटुवा, तम्बाकू का गुटका आदि। 

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 

( वीकेंड पोस्ट के 16  नवम्बर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम )

Saturday, November 09, 2013

वीकेंड पोस्ट के 09 नवम्बर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम


दुनिया को हमारी सौगात है - बूथ कैप्चरिंग
 
भारत ने इस दुनिया को  समय-समय पर अनेक अनूठी सौगातें  दी हैँ  और  उसमें लेटेस्ट है बूथ कैप्चरिंग। पश्चिम ने दुनिया को  लोकतंत्र दिया;  पोलिंग और पोलिंग  बूथ दिया तो हमारा भी फ़र्ज़  बनता  था कि  कुछ न कुछ जोड़कर उसे देते, सो दे दिया -- बूथ कैप्चरिंग।  लोकतंत्र का अनूठा कर्म -- बूथ कैप्चरिंग।  और इस कला से दुनिया ने लोकतंत्र के एक महान कर्म से अपने आप को परिचित कराया। अब दुर्भाग्य से कुछ लोग इस महान कर्म का सत्यानास कराने  में जुट हैं और संविधान की दुहाई दे रहे हैं। 

वैसे भारत ने दुनिया को क्या नहीं दिया? हमने दुनिया को शून्य दिया, हमने आयुर्वेद दिया, खगोलशास्त्र दिया, दिशाज्ञान यानी  नेविगेशन दिया, पाई यानी  पाइथागोरस के प्रमेय को दिया, शतरंज का खेल, बाँध बनाने की कला, बीजगणित, शल्य चिकित्सा का ज्ञान दिया।   यहाँ तक कि  एनेस्थेसिया भी हमारी देन रही है।  उन्होंने  लोकतंत्र का ज्ञान देकर कौन सी नवाई कर ली? हमें जो दिया है वह तो बेचारा पश्चिमी जगत ले ही नहीं पा रहा है।  समझ ही नहीं पा रहा हमारे मर्म को। 

हमने  दी हैं  इलेक्शन में मॉस पोलिंग, 'वन साइडेड  (यानी जबरिया) पोलिंग', ईवीएम मेनिपुलेशन, वोटर लिस्ट में छेड़छाड़, मतगणना में गड़बड़ी जैसी सौगातें ! अगर हम  यह नहीं देते तो दुनिया बेचारी फेअर इलेक्शन में ही फंसी रहती और 'प्रतिभाशाली लोग' चुनाव नहीं जीत पाते। चुनाव में बाहुबल और धनबल का इस्तेमाल कैसे करें, पैसे से टिकट कैसे खरीदें और वोटरों को कैसे खरीदें या मतदान से रोकें, जैसी टेक्नॉलॉजी भी भारत की ही देन  है। दिलचस्प बात यह है कि हमारी इस प्रतिभा का फायदा उठानेवाले देश भी एशिया के ही हैं, यूरोपवाले बेचारे अभी इतनी तरक्की नहीं कर पाये हैं। इतना ही नहीं, भारत में कई उम्मीदवार इस विषय में पीएचडी कर चुके हैं कि जेल में बैठकर कैसे चुनाव जीतें, आदर्श आचार संहिता का खंडन कैसे करें, पार्टी का टिकट न मिलने पर भितरघात कैसे करें। कई नेता मानद डी- लिट् उपाधि के भी हक़दार हैं क्योंकि उन्होंने लाखों मतदाताओं को एकमुश्त मूर्ख बनाने का रिकॉर्ड बनाया है। दुनिया में इसकी मिसाल नहीं मिलेगी क्योंकि ऐसा कोई काम बाहर के देशों में हो ही नहीं पाया है। 

अगर भारत में इलेक्शन टूरिज्म शुरू हो तो लाखों पर्यटकों को आकर्षित किया जा सकता है।  पर्यटक भारत में बच्चों को वोट डालते हुए, महिला वोटर को पुरुष बनकर और पुरुष वोटर को महिला बनकर वोट डालते देखना पसंद करेंगे। हॉलीवुड के खलनायक चुनावी बाहुबलियों से प्रेरणा ले सकते हैं। दुनिया के बच्चे भारत आकर चुनाव में सक्रिय योगदान को समझकर ज्ञान बढ़ा सकते हैं। 

इन तमाम  संभावनाओं के बावजूद देश का चुनाव आयोग है जो इन तमाम विकास के काम में अड़ंगे डालते हुए फेअर इलेक्शन करने पर अड़ा है. उसका या कृत्य  पूरी तरह विकास विरोधी और अधिनायकतावादी है।  चुनाव आयोग ही है जिस कारण हमारी असली प्रतिभा दबी कुचली पड़ी है। 

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
(वीकेंड पोस्ट के 09 नवम्बर 2013 के अंक में  मेरा कॉलम)

Saturday, November 02, 2013

एक लाइन लिखने की ज़िम्मेदारी

वीकेंड पोस्ट के 02 नवम्बर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम

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इस देश में अधिकांश लोगों के सिर पर बड़ी भारी ज़िम्मेदारी है। सिर्फ एक लाइन लिखवाने  की ज़िम्मेदारी। बस, एक लाइन लिखवा  दो, हो गई  ज़िम्मेदारी  ख़त्म !  यही स्टाइल है हमारा।  काम कितना भी बड़ा और महत्वपूर्ण हो, पल्ला झाड़ने का ये तरीका हमारी जीवन शैली बन चुका है। हर जगह आपको इसका नमूना देखने को मिलेगा :

--''यात्री अपने सामान की सुरक्षा के लिए खुद जवाबदार होगा''. लक्ज़री बसों तक में लिखा होता है. सामान को बस का कंडक्टर छत पर या नीचे बनी डिक्की में रखवा  देता है और यात्री बैठता है बस के भीतर।  अब वह कैसे संभालेगा सामान? पर लिख दिया तो लिख दिया और मुक्त हो गए सामान की सुरक्षा की जवाबदारी से. 

--''वाहन  की सुरक्षा चालक खुद करे.'' यह ब्रह्मवाक्य भी तमाम इमारतों के बाहर लिखा दिखता है। आप भले ही किसी काम से उस बिल्डिंग में गए हों, वहां चौकीदार  हो, उसने आपको टोकन दिया हो, पर ज़िम्मेदारी आपकी ही है. बिल्डिंग के मैनेजमेंट की, चौकीदार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं। 

--''टूट-फूट की हमारी कोई जवाबदारी नहीं।'' यह अनमोल वचन भी यातायात पुलिस की 'रिकवरी' गाड़ियों पर लिखा होता है. यानी यातायात पुलिस का काम केवल चालान बनाना (और वसूली यानी 'रिकवरी' करना) ही है. पार्किंग की जगह पर अतिक्रमण क्या वाहन चालक हटवाएगा?  सड़कों से आवारा ढोर हटाने की नगर निगम की कोई ज़िम्मेदारी  नहीं?

--''पाठक इस समाचार पत्र में छपे विज्ञापनों की सत्यता की पड़ताल के बाद ही  कोई निर्णय करे, इस पर हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी।'' आजकल अखबारों में यह भी छपने लगा है। पहले तो मुझे लगा कि  शायद प्रिंटिंग की त्रुटि हो गई है और खबरों के बजाय विज्ञापन छप  गया है, होना भी यही चाहिए था क्योंकि आजकल अखबारों में जैसी खबरें छप  रही हैं, उससे तो यही लगता है. पर जब यही सूचना हर पेज पर छपी देखी  तो सवाल उठा कि विज्ञापन तुम छापो, करोड़ों रुपये की कमाई तुम करो और पुष्टि हर करें।  अखबार खरीदें भी और पढ़ने की यातना भी झेलें और विज्ञापनों  की सच्चाई की पड़ताल भी हम ही करें। …तो फिर आप क्या करोगे?

इलाज कराने अस्पताल में जाओ तो वहाँ इलाज के पहले दो काम कराये जाते हैं : 1.  इलाज के पैकेज का एडवान्स जमा और 2.  इलाज का डिक्लेयरेशन , जिस पर लिखा होता है कि अगर मरीज़ खुदा न खास्ता, खुदा  को प्यारा हो जाए जो इस अस्पताल के डॉक्टरों की, स्टाफ की, मालिकों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी। जान मरीज़ की जोखिम में, लाखों चुकाएगा वह, तकलीफ भी भोगेगा वही और उसके घरवाले, लेकिन मोटी वसूली के बाद भी ज़िम्मेदारी अस्पतालवालों की नहीं। 

इस देश में सारी की सारी ज़िम्मेदारी हम नागरिकों की है. शुक्र इसी बात का है कि पुलिस थानों में जो भी होता हो, यह लिखने का चलन नहीं आया है  कि आपकी ज़िन्दगी की ज़िम्मेदारी आपकी खुद की है. स्कूलों-कॉलेजों में अभी ये लिखना बाकी है कि यहाँ आकर पढ़ना आप ही को है, हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं। …और  हाँ, नोटों पर अभी यह नहीं लिखा जा रहा है कि रिश्वत लेना और देना अपराध है, अपनी जोखिम से ही आप ये काम करें। 

यानी इस देश का आम  नागरिक अगर आज दुखी, शोषित, पीड़ित, ठगाया हुआ, उपेक्षित, व्यथित और लुटा-पिटा है तो इसके लिए कोई और ज़िम्मेदार नहीं है. हर जगह तो लिखा है कि ज़िम्मेदारी उसी की है. 

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
(वीकेंड पोस्ट के 02 नवम्बर 2013 के अंक में  मेरा कॉलम)

Tuesday, October 29, 2013

पुरुष को क्यों मानते हो दोयम?

एंटी कॉलम


वीकेंड पोस्ट के 26 अक्तूबर २०१३ के अंक में  मेरा कॉलम





( नोट : यह लेख महिलाओं के प्रति पूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए भारतीय समाज में पुरुषों की दशा बताने के लिए है, कृपया इसे नारी के सम्मान-असम्मान से जोड़ने का की कोशिश नहीं करें। )

कई बार लगता है कि पुरुष होकर  कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया है। कोई भी अखबार, रिसाला, वेबसाइट पर जाओ, पुरुषों को हर तरह से गैर-ज़िम्मेदार और स्वार्थी बताने के साथ ही बलात्कारी-व्यभिचारी, शोषक, नीच, दम्भी, कुटिल, धूर्त, परजीवी और न जाने क्या-क्या बताना फैशन हो गया है. जितनी भी घटिया उपमाएं हैं, सब की सब पुरुष प्रजाति के नाम ! क्यों? क्या स्त्रियां अपनी मर्जी से स्त्रियां और पुरुष अपनी मर्जी से पुरुष बने हैं? दोनों को प्रकृति ने बनाया है, दोनों ही सम्माननीय हैं। पुरुष भी, स्त्रियाँ भी।  फिर बीच में यह जेंडर की लड़ाई क्यों? किसकी दुकान सजाने के लिए? इससे क्या वाकई किसी का भला होगा?

पुरुषों को गाली देना फ़िज़ूल है। स्त्रियाँ घर बनाने में योगदान देती हैं तो  क्या पुरुष घर को चलाने  में योगदान नहीं देते?(अपवाद छोड़कर) अगर कोई कहे कि  स्त्रियाँ अपने मर्दों (पति, पिता, भाई, प्रेमी आदि) की कमाई पर ऐश करती हैं तो क्या गलत बात नहीं होगी? नारी पूजनीय थी, है और रहेगी लेकिन पुरुष को भी वह सम्मान अवश्य मिले, जिसका वह हक़दार है. पुरुष द्वारा  उत्पीड़न की बातें करनेवाले   नेशनल  क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की यह रिपोर्ट ज़रूर देखें कि रोजाना 168 विवाहित पुरुष 'विभिन्न कारणों से' आत्महत्या करते हैं, और यह संख्या विवाहित स्त्रियों की तुलना में करीब दो गुनी है।  दसियों साल से आत्म हत्या में पुरुषों  की संख्या बढ़ती ही जा रही है। पुरुषों की आत्महत्या हर साल 5. 6 की दर से बढ़ रही है जबकि स्त्रियों में यह प्रतिशत 1.  4 है. यानी पुरुषों से एक चौथाई। (देखिये ग्राफ) आत्महत्या के ये दोनों ही आंकड़े दुखद हैं।

भारतीय दंड संहिता की धारा '498 -ए' के तहत हर साल दहेज़ के 58  हजार से भी ज्यादा  मामले दर्ज किए जाते हैं। इन लोगों में केवल नौकरीपेशा, व्यवसायी, मज़दूर, एन आर आई  ही नहीं; फ़ौज और पुलिस  के अफसर और यहाँ तक कि न्यायाधीश तक शामिल हैं।  आंकड़े देखें तो औसतन जहां हर 19 मिनट में देश में किसी व्यक्ति की हत्या होती है, वहीं हर 10 मिनट में एक विवाहित व्यक्ति आत्महत्या करता है।   हर साल  एक लाख से भी ज्यादा लोग झूठे मामलों में गिरफ्तार होते हैं। हर 4  मिनट में एक पुरुष को  दहेज मांगने के झूठे मामले में फंसा दिया जाता है।  हर ढाई  घंटे में एक बुजुर्ग  को दहेज की मांग के झूठे आरोप में पकड़ लिया जाता है। यहाँ तक कि रोजाना  एक निर्दोष बच्चा इसी धारा में गिरफ्तार होता है, हर २३ मिनट में कोई न कोई बेक़सूर महिला भी 'धारा 498 ए' के तहत गिरफ्तार होती है।  हर पांच मिनट में एक निर्दोष सलाखों के पीछे पहुंचता है। ऐसा लगता है कि पुरुष विरोधी कानूनों के पीछे परिवार की सत्ता को ख़त्म करके व्यक्तिवादी सत्ता की स्थापना करना बाज़ार का लक्ष्य है. पुरुषों को गाली देकर वाहवाही लूटना सोशल वेबसाईट्स पर शगल बनता जा रहा है।

 इस मामले में ऐसे अनेक प्रकरण सामने आ चुके हैं कि   अपनी दुश्मनी निकालने के लिए कुछ लोग दहेज माँगने  के गलत आरोप लगा कर बेक़सूर  लोगों को फंसा देते हैं.  हालात इतने खराब हो गए कि एक मामले में न्यायमूर्ति  अशोक भान और और न्यायमूर्ति  डी.के. जैन ने को यहाँ तक कहना पड़ा कि   सेक्शन '498  ए' को दहेज के कारण होने वाली मौतों को रोकने के लिए लागू किया गया था न कि मासूम व निर्दोष लोगों को फांसने के लिए। आईपीसी की धारा '498 -ए' के दुरुपयोग के मामले भी सामने आने लगे हैं ।इस कानून के तहत दर्ज मामला गैर जमानती और दंडनीय होने के कारण और भी उलझ जाता है। आत्मसम्मान वाले व्यक्ति के लिए यह काफ़ी घातक हो गया है, जब तक अपराध का फ़ैसला होता है जेल में रहते-रहते वह इस तरह खुद को बेइज्जत महसूस करता है कि मर जाना पसंद करता है, इंदौर में भी ऐसे प्रकरण सामने आ चुके हैं जब झूठे मामानों में फंसे बेक़सूर पुरुष ने आत्महत्या कर ली.  आत्मसम्मान वाले आदमी के लिए एक बार गिरफ्तार हो जाना काफी घातक होता है। इस क़ानून में एक गुनाहगार को सजा दिलाने के लिए हजारों बेक़सूर लोगों को फंसाना आम हो गया है.
इसी कारण दहेज़ विरोधी कानून को 'लीगल टेररिज्म' तक कहा जाने लगा है. दहेज़ लेना और देना दोनों ही गैरकानूनी है तो फिर केवल दहेज़ माँगनेवाले ही क्यों जेल में बंद किये जाते हैं?

अगर हम सचमुच अच्छा समाज बनाना चाहते हैं तो हमें स्त्रियों और पुरुषों, दोनों को ही इज़्ज़त देनी होगि. जेंडर के नाम पर अगर स्त्रियों से नाइंसाफी होती है तो वह गलत है ही, लेकिन पुरुषों से नाइंसाफी करके भी अच्छा समाज नहीं बनाया जा सकता। फैशन और अपने फायदे के लिए ऐसी लड़ाइयाँ लड़ी जा रही हैं, जो बंद होना ज़रूरी है.

--प्रकाश हिन्दुस्तानी
(वीकेंड पोस्ट के 26 अक्तूबर 2013 के अंक में  मेरा कॉलम)


Saturday, October 19, 2013

मुहूर्त का काम !

('वीकेंड पोस्ट' के 19 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)



मुहूर्त का काम  !



भारत में सब काम मुहूर्त देखकर शुरू होते हैं। लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों, ज़्यादातर  काम बिगड़ ही जाते हैं।  हर फिल्म का मुहूर्त होता है पर ऐसी  फ़िल्में दस प्रतिशत ही बनती हैं जो हिट  होती हैं।   हर मकान का निर्माण मुहूर्त देखकर शुरू होता है,  और अधिकांश  मकान,   मकान ही रह जाते हैं घर नहीं बन पाते। वाहन खरीदनेवाले भी मुहूर्त देखकर जाते हैं। पर क्या ऐसे वाहनों से कभी कोई दुर्घटना नहीं होती? दुकानें , कारखाने, फैक्टरियां आदि भी मुहूर्त देखकर शुरू होती हैं , 80 फ़ीसदी ठप हो जाती हैं. लगभग सभी  नेता चुनाव अभियान शुरू करते हैं  तो मुहूर्त देखकर। लेकिन कामयाब तो  कुछ ही हो पाते हैं। …. और रही बात शादियों की, तो अधिकाँश मुहूर्त देखकर ही होती हैं और उनका हश्र सभी जानते हैं।  खासकर पति लोग। 
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जो काम मुहूर्त देखकर नहीं होते, उनकी कामयाबी का प्रतिशत कुछ ज्यादा ही होगा।  चोर मुहूर्त नहीं देखते, ज़्यादातर सफल होते हैं। रिश्वत मांगने वाले और देनेवाले दोनों ही कहाँ मुहूर्त के चक्कर में पड़ते हैं? मौक़ा आया तो मांग ली, मज़बूरी अड़ी तो दे दी। मोहर सिंह-माधो सिंह कौन सा मुहूर्त देखकर डाकू बने थे और कौन सा मुहूर्त देखकर सरेंडर करने गए थे? अवैध निर्माण करनेवाले भी कहाँ मुहूर्त देखते हैं, जी में आया और कर डाला।  फिर उन्हें तोड़नेवाले कौन सा मुहूर्त देखकर तोड़ते हैं? दबाव आया तो तोड़ डाला।  नहीं भी तोडा तो क्या? बाबा लोग जो पूरे गाँव को मुहूर्त की पुड़ियाएं बाँटते रहते हैं, कहाँ मुहूर्त देखते होंगे? देखते होंगे और फिर भी फंस जाते हैं तो इसे क्या कहेंगे? बड़े बड़े घोटाले करनेवाले भी कहाँ मुहूर्त के गेर में पड़ते हैं?   मुहूर्त की ऐसी तेसी करनेवालों में मोहब्बत करनेवाले अव्वल हैं।  मोहब्बत करनेवाले  कहाँ मुहूर्त देखने जाते हैं , लोग कहते हैं कि यह अपने आप होनेवाली दुर्घटना है , ऐसी  चीज़ है, जिसका मुहूर्त हमेशा सही ही रहता है.  ऐसा नहीं कि मुहूर्त देखा और लग गए अभियान में। 


इंदौर में हर काम मुहूर्त देखकर किया जाता है। क्यों ? क्यों का क्या? मुहूर्त देखा जाता है, तो बस देखा जाता है।  परम्परा है।  सब देखते हैं तो यहाँ भी देखा जाता है। सड़क का मुहूर्त, फिर भूमिपूजन। नाली बनाने का मुहूर्त, फिर भूमिपूजन। खम्बे लगाना हो , फुटपाथ बनाना हो , बस चलाना हो , बगीचा लगाना हो,  भाषण-प्रवचन-पूजन-रैली-आयोजन करना हो , पहले मुहूर्त देखो और फिर शुरू करो। इसका एक खास मकसद होता है लोगों को मूर्ख बनाने का।  फलां काम का ऐलान हो चुका था , काम शुरू हो गया क्या ? नहीं , मुहूर्त हो चुका  है, पूजा भी हो गयी है, काम जल्द शुरू होगा…। हाल यह है कि हर काम का मुहूर्त निकल चुका , पूजा हो चुकी और काम ? वह भी हो ही जायेगा. 

मुहूर्त बतानेवाले कहते हैं कि मुहूर्त का मतलब होता है किसी भी  काम को शुरू करने की सबसे शुभ घड़ी।  यह सबसे शुभ घड़ी ब्रह्म मुहूर्त मानी  गयी है। यह ब्रह्म मुहूर्त दो घड़ियों के बराबर होता है यानी करीब 48 मिनट के बराबर। सूर्योदय से करीब दो घंटे पहले यह घड़ी सुबह सुबह 4  बजकर 24 मिनट से 5 बजकर 12 मिनट पर होती है. दूसरा सबसे अच्छा मुहूर्त माना  गया है  जीव या अमृत मुहूर्त को और यह होता है रात 2 बजे से 2 बजकर 48 मिनट तक। यानि ये दोनों ही घड़ियाँ रात में गुज़र जाती हैं और लोग सोते रह जाते हैं।   फिर जो भी बचता है, उसी में कुछ न कुछ बहाना बनाकर काम शुरू कर देते हैं। 

मेरा निवेदन है कि हर घड़ी शुभ है।  काम शुरू करना ही हो तो।  वरना मुहूर्त तो बहाना होता है। बस। 

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
('वीकेंड पोस्ट' के 19 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)

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ये रहे मेरे फेसबुक कमेंट्स

('वीकेंड पोस्ट' के 5 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)


ये रहे मेरे फेसबुक कमेंट्स 

फेसबुकी दोस्तों का सन्देश था कि बहुत दिनों से फेसबुक पर दिखाई नहीं दे रहे हो, क्या सब ठीक तो है? बिलकुल ठीक है भय्या। पर क्या करूँ , दोस्त लोग जैसे फोटो चिपकाते हैं, जैसे कमेन्ट लिखते हैं, अगर मैं उसके जवाब में  मन की बातें लिखने लग जाऊं तो  एक भी मित्र फेसबुक पर बचेगा नहीं।  मैं ये रिस्क लेने से डरता रहा और    गैरहाज़िर रहा।  अब कुछ हिम्मत जुटाकर फिर  आया हूँ। कम लिखे को ज़्यादा समझना .
दो अकाउंट हैं जिनमें मेरे करीब दस हज़ार मित्र हैं फेसबुक पर. हरेक की पोस्ट पर कमेन्ट लिखना संभव नहीं है.  कहीं सच्ची बात न निकल जाए इसलिए भी डरता हूँ।  अपनी सुविधा और सम्मान के लिए मैं यहाँ कुछ कमेन्ट लिख रहा हूँ, कृपया अपनी पसंद और सुविधा के अनुसार यह कमेन्ट कॉपी पेस्ट कर लीजिएगा। फिर मेरी टाइमलाइन में या मैसेज बॉक्स में मत लिखना कि मैं आपसे मुखातिब नहीं।  ये रहे मेरे ईमानदार कमेंट्स, मेरे इन कमेंट्स में से जिसे भी चाहो अपनी पोस्ट के नीचे चिपका लो :

--ये सब टीपा-टीपी का धंधा बन्द  करो यार। 

--तुम घूमने  विदेश गए हो तो मैं क्या करूं बे?

--क्या चीज़ मारी है।  कहाँ से चोरी की?

--हरामी, फर्जी कॉमरेड ! मुझे तेरी औकात मालूम नहीं क्या?

--तू क्या रजनीकांत का बाप है?

--वाह, क्या फोटो है यार! क्या साथ में खड़ी वो सुन्दर सी औरत आपकी बीवी है? नहीं, भाभी जी 
तो नहीं है ये।  कोई चक्कर है क्या?

--फोटो देख लिया।  पता चल गया कि तुमने नयी गाड़ी खरीद ली है। 

--ये गाड़ी क्या तुमने अपनी कमाई से खरीदी है? बाप की कमाई पर कब तक इतरायेगा बच्चू?

--तू तो स्साले, है ही बड़ा कम्यूनल !

--घुस जा पप्पू के पेंट में। 

--मोहतरमा, आपने कविता किसी और की मारी है और फोटो हीरोइन का चिपका दिया है. कोशिश अच्छी है, किसी बहाने तो लोगों ने लाइक किया। 

--फेसबुक पर आकर प्रवचन लिख रहा है हरामखोर ! क्या मुझे पता नहीं कि तेरी औकात क्या है?

--कितने  रुपये में नेताजी के लिए रोज रोज कमेन्ट लिख है?

--मुझे पता है नेताजी, कि कंप्यूटर और  इंटरनेट  के मामले में आप निहायत गधे हैं, लेकिन दुकान  सजाने की कोशिश में आपने गधों की ही सेवा लेना शुरू कर दी है। 

--मुझे पता है ये फोटो कैटरीना है और तुम जो भी हो कैटरीना कैफ तो नहीं ही हो। अपना असली फोटो लगाने में तेरे को शर्म आती है क्या? या तू सूर्पनखा है?

--मैडम जी, आप ये जो रोजाना फेसबुक पर आकर मर्दों को गरियाती रहती हैं, इसीलिये तो कोई फंसता नहीं तुमसे। तुम तो आजीवन प्यासी आत्मा ही रहोगी। 

--तुम कैसा लेखन करती हो  देवी? मुझे लगता है कि विभूतिनारायण राय ने जो कमेन्ट किया था वो आपके और आप जैसों के लिए ही था. 

--अच्छी नौकरी है, मोटी तनख्वाह है, माल कमा रहे हो, ऐश कर रहे हो और यहाँ आकर ज्ञान बाँट रहे हो?

--मुझे पता है कि तुम एक नंबर के नीच, कमीने, घटिया, तुच्छ, हेय, गिद्द हो. यहाँ फेसबुक पर मुंह मारने  की कोशिश कर रहे हो. तेरे को तो सुअरिया  भी घास न डाले।

--पाखंडी, तेरा सच्चाई और धर्म से क्या लेना देना है?

(फेसबुक के सभी  सच्चे मित्रों से क्षमायाचना सहित )

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
('वीकेंड पोस्ट' के 12 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)

http://www.prakashhindustani.com/

Wednesday, October 09, 2013

जो कष्ट उठा उठा कर मरे, वो कस्टमर !!!

मेरा  'एंटी कॉलम' फिर से शुरू  हो  गया 





('वीकेंड पोस्ट' के पहले अंक से मेरे बहुचर्चित रहे स्तंभ 'एंटी कॉलम' की शुरुआत फिर हो गयी . यह कॉलम दैनिक भास्कर में पहले हिन्दी में लिखा करता था बाद में इसे टाइम्स ऑफ इंडिया के इंदौर संस्करण ने लंबे समय तक प्रकाशित किया. दैनिक हिन्दुस्तान के सभी संस्करणों में हर रविवार को 'जीने की राह' शीर्षक से कॉलम लिखने और अन्य कारणों से यह लेखन नहीं हो पा रहा था, लेकिन श्री रमण रावल के संपादन में शुरू हुए 'वीकेंड पोस्ट' में संपादक के आग्रह पर इसे फिर से लिखना शुरू कर दिया है.

 अब आप इसे हर हफ्ते मेरे इस ब्लॉग पर भी देख सकेंगे.)


दीपावली के पहले घर की पुताई शुरू हुई ही थी कि श्रीमतीजी ने कहा  --दीवार पर लगा टीवी सेट उतरवा दो, वर्कर लोग गन्दा न कर दें ; पुताई के बाद फिर लगा देना। आज्ञाकारी पति के रूप में मैंने  तत्काल हाँ भरी और लगा टीवी सेट को उतारने. पर यह क्या, वो तो दीवार में नट - बोल्ट से पक्का फिट किया हुआ था. मैं समझ गया कि अपने बूते की बात नहीं है. मौका मुआयना करने के बाद मैंने जवाब दिया -- बहुत भारी  है, कुछ टूट फूट  गया तो फालतू नुक्सान हो जाएगा,  इलेक्ट्रिकवाले को ही बुलाना पड़ेगा।

--तो बुला लो।  फिर आदेश। 

मैंने स्कूटर उठाया और निकल गया इलेक्ट्रिकवाले के यहाँ।  पहली दुकान पर ही जवाब मिला -- हम ये काम नहीं करते, लोगबाग बाद में गले पड़  जाते हैं। कोई और जगह ढूंढो। तीन-चार दुकान पर पूछताछ की, पर मुआ कोई भी राजी नहीं हुआ इस छोटे से काम के लिए. इसी बीच घर से मोबाइल  पर पूछताछ हुई कि कहाँ घूम रहे हो, घर में पुताई चल रही है और उस एक कमरे का काम रुका  पड़ा है।  एक ही काम तो कहा था, वह भी   नहीं हो पा रहा है तुमसे.     मैंने सफाई दी कि इलेक्ट्रिकवाले राजी नहीं हो रहे.… झल्लाई हुई आवाज़ आई कि टीवी शोरूम से ही किसी को बुला लो , सौ-दो सौ लेगा,  पर टीवी तो उतारकर लगा देगा।  मैंने हामी भरी और घुमाया स्कूटर  टीवी शो रूम की तरफ़. पर यह क्या! यहाँ तो ताला पड़ा था. पूछताछ की तो पता चला कि आज गणेश विसर्जन हो रहा है, शोरूम बंद है. मैंने कहा --भैया, झांकी तो रात को निकलेगी, अभी  काहे  की छुट्टी? जाहिर है मैं गलत व्यक्ति से गलत बहस कर रहा था. खैर, तीन चार शोरूम के चक्कर लगाने के बाद मुझे टीवी का एक शो रूम खुला मिल ही गया। उसे देख मुझे वैसा ही खुश  हुआ जिसे मुहावरों में 'बांछें खिलना' कहते हैं। 

शो रूम में झटके से घुसते हुए मैंने कहा -- दीवार से टीवी उतारना और लगाना है, क्या कोई  टेक्निकल बन्दा है?

--ओह, टीवी शिफ्ट करना है? कहाँ से कहाँ ले जाना है? किस लोकेशन में?

--कोई लोकेशन वोकेशन नहीं, पुताई हो रही है, पुताई के बाद फिर लगा देना है। 

--मतलब दो विजिट लगाना  पड़ेगी।  एक विजिट के 500, दो के 1000  लगेंगे। 

--1000 रुपये …मेरी आँखें फटी की फटी रह गई -- मैं कोई पुराना टीवी खरीदने नहीं, उसी टीवी को, उसी सामान के साथ, उसी जगह फिट करना है, बस। दीवार पर पुताई होते ही। 

शो रूम मैंनेजर  सज्जन लगा रहा था, मेरे अचरज पर उसे कोई अचरज नहीं हुआ। सामान्य से अंदाज़ में पूछने लगा --कौन सा टीवी है ?

--सोनी कंपनी का ब्राविया।  

--पर ये तो सैमसंग का शो रूम है सर.  सोनी कंपनी के शो रूम में जाइये. 

--आप ये काम नहीं करवा सकते?

--बिलकुल नहीं।  जिस कंपनी का माल खरीदा, सर्विस भी तो उसी की लगेगी ना। 

मैं खिसिया गया. अपनी समझ पर बगैर झेंपे पूछ ही लिया कि  सोनी का शो रूम कहाँ है?

 ये एयर कंडीशंड   शो रूम वाले बड़े ही सज्जन प्रोफेशनल लोग होते हैं बेचारे।  काम करें या न करें , बोलते बहुत अच्छा है,  उन्होंने विनम्रता से पता बताया , यह भी कहा कि हमारे लायक कोई सेवा हो तो बताएं।  हमारे ग्राहक होते तो तत्काल सेवा देने की 'सोचते', वगैरह वगैरह।  मैंने भी शरीफ ग्राहक की तरह धन्यवाद दिया और  ढूँढते-ढूँढते  सोनी टीवी शो रूम पहुंचा।  जान में जान आई। अपनी मूर्खता पर तरस भी आया कि जिस कंपनी का टीवी खरीदा उसी कंपनी के पास जाना था ना। इतना सा कॉमन सेन्स तो होना ही चाहिए। सोनी के शो रूम में  जाकर मैंने  फिर अपना टेप बजाया। टीवी दीवार से उतारना और फिर फिट करना है आदि आदि। 

मैंने पहले  ही लिखा है न कि  ये एयर कंडीशंड  शो रूम वाले बड़े ही सज्जन प्रोफेशनल लोग होते हैं बेचारे।  काम करें या न करें , बोलते बहुत अच्छा है, मैनेजर ने  विनम्रता से कहा -- हो जाएगा, पर आप शो रूम आ गए हैं , आपको हमारे सर्विस सेंटर पर जाना पड़ेगा जो ए बी रोड पर है, इंडस्ट्री हाउस के पास. उन्होंने मेरा ज्ञान यह कहकर भी बढ़ाया कि सोनी बहुत ही बढ़िया और बड़ी कंपनी है और आफ्टर सेल्स सर्विस भी लाजवाब देती है. क्वालिटी मेंटेन करने के लिए और मुझ जैसे दुखियारों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहती है।  


थोड़ा  दुखी, थोड़ा क्षुब्ध और थोड़ा विचलित मैं सोनी सर्विस सेंटर की तरफ रवाना  हुआ। वहां पहुंचकर देखा कि हाट  बाजार जैसा नज़ारा था. कोई किसी को नहीं पूछ रहा था. कुछ लोग थे, जो बहुत बिजी थे. कुछ लडके-लड़कियाँ टाइप कर्मचारी भी थे, जो हंसी- ठठ्टा कर रहे थे, एसएमएस, फेसबुक, वाट्सअप में संघर्ष कर रहे थे और दिखावा कर रहे थे कि वे भी बिज़ी हैं। खैर किसी तरह मुझे एक कर्मचारी ने समय दिया।  मैंने फिर अपनी पूरी बात उससे कही। वह मुस्कराया और फिर बोला -- सर, आप यहाँ क्यों आये? आपका काम तो एक फोन से ही हो जाता।  आपको यहाँ आने की  ज़रुरत ही नहीं थी।  मेरा मनोबल टूट सा गया, बहुत स्मार्ट समझते हो अपने आप को, मैंने मन ही मन खुद को कोसा. इतना सा भी नहीं पता कि अंतर्राष्ट्रीय  स्तर की सेवा कैसी होती है !

फिर उस कर्मचारी में मुझे एक विजिटिंग कार्ड दिया और ज्ञान बढ़ाया  कि इस पर एक टोल फ्री नंबर है -- 1800 103 7799 .मैंने पूछा  कि क्या मोबाइल  से यहाँ कॉल हो सकता है? मेरी नासमझी पर वह मुस्कराया और बोला -- हाँ, हो सकता है.  उसने यह भी दोहराया कि  इस नंबर  पर फोन कर देने मात्र से ही काम हो जाता है. पैसे भी नहीं लगते फोन के. मैंने उससे पूछा कि मेरा टीवी दीवार से कब तक उतार दिया जाएगा ? उसने कहा --इस टोल फ्री नंबर पर कॉल कर दीजिए। मैंने कहा -- सर्विस सेंटर पर आ ही गया हूँ तो कॉल की क्या ज़रुरत?

उसने कहा--ज़रुरत है। आप यहाँ कॉल करके केस दर्ज कराएँगे फिर हमें यहाँ से ईमेल आएगा फिर ही हम काम कर सकते हैं। हम यहाँ अपनी मर्ज़ी से कोई सर्विस नहीं दे सकते. हर काम का हिसाब रखना पड़ता है. हर काम का शुल्क तय है। 

मेरी नैतिकता जवाब दे गयी थी।  मैंने कहा --यार, तुम टीवी दीवार से उतरवा दो, जो भी शुल्क है, ले लेना।  बिल वगैरह की हमें ज़रुरत नहीं।  

 -- ऐसा कैसे हो सकता है? उसने भी यह कहकर मुंह फेर लिया कि सोनी बहुत ही बढ़िया और बड़ी कंपनी है और आफ्टर सेल्स सर्विस भी लाजवाब देती है. क्वालिटी मेंटेन करने के लिए और मुझ जैसे ग्राहकों  की सेवा के लिए हमेशा तैयार रहती है।  

झल्लाया सा मैं सर्विस सेंटर से बाहर आया. सोचा था कि फोन ही करना है तो बाहर से फोन करके शिकायत दर्ज करा देनी चाहिए। इसी बीच श्रीमती जी का फोन बार बार आ यहाँ था, जिसने झल्लाहट और बढ़ा  दी थी। इतने से काम के लिए इतने घंटे लगा दिये. खरी खोटी सुनाने के मूड में आकर मैंने  टोल फ्री नंबर  -- 1800 103 7799 पर फोन लगाया।  सोचा था सर्विस मैनेजर से बात करके सारी दिक्कतें बताकर ही दम लूँगा।  मैंने कॉल किया उधर से काफी देर बाद जवाब आया --वेल्कम टु सोनी कस्टमर सर्विस सेंटर। थैंक यू फॉर कालिंग। योर कॉल में बी रेकार्डेड फॉर बेटर  सर्विसेस।   इफ यू आर कस्टमर, डॉयल वन, इफ यू आर डीलर, डॉयल टू. 

मैंने 1 प्रेस किया। फिर आवाज़ आई --फॉर इंग्लिश, प्रेस 1, फॉर हिन्दी प्रेस 2, फॉर बांग्ला प्रेस 3 …… मैंने  2  नंबर दबाया. सोचा --अब हड़का कर ही दम लॊङ्ग. हिंदी में मुंहजोरी की आदत भी है ही। इधर से फिर टेप बजा --डीलर का पता जानने के लिए 1 , तकनीकी सेवा के लिए 2 ,  डेमो रजिस्ट्रेशन के लिए 3 , उत्पादों की जानकारी के लिए 4 , दुबारा  विकल्प जानने  के लिए 5  और मेन  मैन्यु में जाने के लिए 6  डायल करे. मैं भी बहुत स्मार्ट हूँ, मैंने  तकनीकी सेवा के लिए  फट से 2  नंबर डायल कर दिया। फिर टेप चालू ---वायवो नोट के लिए फलाना, हैंडीकैम के लिए फलाना, होम थियेटर के लिए फलाना, प्ले स्टेशन के लिए फलाना, एल सी डी के लिए फलाना, कोई भी उत्पाद के लिए  फलाना , दुबारा विकल्प सुनाने के लिए फलाना और मेन मैन्यु में आने के लिए ढिकाना नंबर प्रेस करें। 

आठ-दस मिनिट संघर्ष के बाद मैं किसी तरह सम्बंधित विभाग में बात कर पाया। उस ऑपरेटर ने कहा कि  आप गलत जगह पर जुड़ गए हैं लेकिन चिंता की बात नहीं, मैं आपकी  सही विभाग में सही व्यक्ति से बात करा रहा हूँ. वह भी यह बताना नहीं भूला कि  सोनी बहुत ही बढ़िया और बड़ी कंपनी है और आफ्टर सेल्स सर्विस भी लाजवाब देती है. क्वालिटी मेंटेन करने के लिए और मुझ जैसे दुखियारों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहती है। 

उसने कृपा की।  मैं सही व्यक्ति से जुड़ गया था. मैंने खीजते हुए पूछा --मुझे मेरा वाल माउंटेड  टीवी दीवार से उतारना है, उतरवा दोगे ?

--बिल्कुल सर। कौन सा टीवी है?
--सोनी का ही है. 
--वो तो सही है, एल सी डी है या डी  वी दी ?
--एल सी डी है. 
--कितने साइज़ का है? कौन सा मॉडल  है?
--३२ इंच का है, मॉडल पता नहीं 
--कहाँ से खरीदा था ?
--यहीं, इंदौर से ही.
--डीलर कौन था?
--सोनी का टीवी है है तो  सोनी के ही डीलर से लिया होगा। 
--वो तो ठीक है कब खरीदा था?
मेरा पारा चढ़ गया ---कब खरीदा, पता नहीं, किससे खरीदा पता नहीं, बिल कहाँ है पता नहीं। …. --क्या मेरा काम हो सकता है?
उसने फिर पुलिसिया अंदाज़ में पूछताछ शुरू की -- आपका नाम , कहाँ रहते हैं, वगैरह वगैरह। 
खीजकर मैंने कहा की मेरा नाम ये है, पता ये, पिता का नाम, डेट ऑफ़ बिर्थ ये, पेन कार्ड-ड्राइविंग लाइसेंस आदि का नंबर पता नहीं।  …और भी कुछ पूछना  है --मेरी हाईट, मेरे बच्चों के बर्थ डे ? मज़ाक बना दिया आपने यार ?

--नाराज़ न हों, अगर वारंटी या गारंटी पीरियड में हो तो बेहतर होता।  कोई बात नहीं, हमारा सर्विस इंजीनियर आपका काम कर देगा. उसकी फीस होगी 400  रुपये प्लस सर्विस टैक्स। करीब 500 रुपये का खर्च आयेगा. 
--कितना भी आये, काम तो कर ही दो।  दे देंगे 500  रुपये और। 
उसने मुझे एक नंबर बताया जो 15728278 था।  उसने यह भी कहा कि यह मेरा 'कस्टमर सर्विस रिक्वेस्ट नंबर' है. उसी के विजिटिंग कार्ड पर मैंने उधार के पेन से नंबर नोट किया फिर शराफत से पूछा --- काम कब होगा?
--जैसे ही हमारा सर्विस  इंजीनियर फ्री होगा, लेकिन आप श्योर रहें 48 घंटे के भीतर हो जाएगा। 
--48 घंटे और वह भी 500  खर्च के बाद?
--कोशिश करेंगे की कल रात तक आपका काम हो जाए; उसने एहसान करने के अंदाज़ में कहा. 
--प्लीज़ जल्दी करा दीजिए।  मैंने कहा। मेरे सामने बेबसी थी।  इंटरनेशनल ब्रांड का माल वापरनेवाले की.  इसी  दौरान श्रीमती जी के कॉल बार-बार आते रहे. मैंने रिसीव नहीं किये. सोचा --घर जाकर ही अपनी कामयाबी की दास्तान बताऊंगा।   

…तेज़ गति से गाड़ी दौड़ाता हुआ मैं घर पहुंचा। श्रीमती जी बोलीं -- कहाँ उलझ गए थे? तुमसे तो एक  छोटा सा काम भी नहीं होता…. कब से छुट्टे के लिए परेशान हो रही हूँ।  50 रुपये मनीष को देना है। 
-कौन मनीष?
-- इलेक्ट्रिशियन।  इसी को बुलावा लिया और इसी ने  टीवी दीवार से उतारा है और फिर लगा भी देगा. आप तो पता नहीं कहाँ गायब थे। 

मैं अवाक खड़ा रह गया।  इंटर नॅशनल ब्राण्ड के सर्विस इंजीनियर का काम इस मनीष ने कर दिया।  50 रुपये में।  मेरी चिंता यह थी कि सोनी कंपनी के इंजीनियर को मैं क्या जवाब दूंगा ? उनके टोल फ्री नंबर पर दुबारा  कॉल करने की   हिम्मत अब मुझमें नहीं बची थी। 
---प्रकाश हिन्दुस्तानी 
('वीकेंड पोस्ट' के 5 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)

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