Friday, December 31, 2010





गुर्जरों का रेम्बो -- कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला
माता-पिता ने उन्हें करोड़ों में एक मानकर नाम दिया था - किरोड़ी सिंह. वे बैसला हैं यानी गुर्जर. बहादुरी उन के खून में है. स्कूल में टीचर थे, लेकिन फौजी पिता के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए सेना में सिपाही बने. 1962 के भारत - चीन और 1965 के भारत - पाकिस्तान युद्ध में बहादुरी से लड़े. वे राजपुताना राइफल्स में थे और पाकिस्तान के युद्धबंदी भी रहे. सीनियर आर्मी अफसर उन्हें 'जिब्राल्टर की चट्टान' कहते थे. उनके साथी कमांडो फौजी उन्हें 'इन्डियन रेम्बो' कहा करते थे. बहादुरी, शक्ति और मेहनत के कारण वे तरक्की पाते-पाते लेफ्टिनेंट कर्नल के ओहदे तक पहुंचे. रिटायर होने के बाद देश के लिए लड़नेवाला फौजी अपनी जाति के आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलनों का नेतृत्व करने लगा. वह गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति का नेता बनकर रेल और सड़क मार्ग जाम करने लगा. आरक्षण के पक्ष में उनका आन्दोलन इतन तेज और लम्बा चला कि न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा. यह भी माना जाता है कि राजस्थान में बीजेपी की सरकार का पतन भी इसी आन्दोलन के देन था.

माना जाता है कि गुर्जर सूर्यवंशी क्षत्रीय कुल के हैं (जिस कुल के भगवान राम थे). कुछ राज्यों में गुर्जर समुदाय को अनुसूचित जनजाति का माना जाता है पर राजस्थान में नहीं. यही बात कर्नल किरोड़ी सिंह को खटक रही थी और उन्होंने गुर्जरों के लिए पाँच प्रतिशत आरक्षण की मांग कर डाली. शुरू में तो उनकी ही जाति के लोगों ने उन्हें 'सिरफिरा' तक कह डाला लेकिन जब उन्होंने आरक्षण के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक लाभ गिनाये तो उनके समुदाय का एक बड़ा वर्ग उनके साथ आ गया. किरोड़ी सिंह ने गैर राजनैतिक आन्दोलन की रूपरेखा बनाकर राजस्थान के रेल और सड़क मार्गों पर कब्ज़ा कर लिया. पुलिस ने बल प्रयोग किया, सेना बुला ली गयी. 2007 में उनके आरक्षण समर्थक आन्दोलन के कारण 27 और 2008 में 43 लोगों कि मौत हुई.

किरोड़ी सिंह बैसला का कहना था कि राजस्थान में मीणा समुदाय को अनुसूचित जनजाति का माना जाता है जिसके राजस्थान में 225 आईएएस और आईपीएस हैं, जबकि लगभग उतने ही बड़े गुर्जर समुदाय का केवल एक ही अधिकारी आईएएस है. यदि आरक्षण का लाभ मिले तो गुर्जर समुदाय भी तरक्की कर सकता है. किरोड़ी सिंह खुद को नेता की जगह 'सामाजिक कार्यकर्त्ता' कहलाना पसंद करते हैं. उनकी राजनीति मुख्य रूप से 2003 में शुरू हुई जब विधानसभा चुनाव के दौरान उनकी भेंट वसुंधराराजे सिंधिया से हुई. कहते हैं कि वसुन्धराराजे ने चुनाव में जीत के बाद गुर्जर आरक्षण का वादा किया था, जिसके पूरा न होने पर चार साल बाद बैसला ने आन्दोलन की राह पकड़ी. 2007 में आन्दोलन हिंसक हो उठा था लेकिन बैसला ने कहा कि उनका हिंसा से कोई लेना नहीं है.

बैसला पर हिंसा के अनेक मामले दर्ज हो चुके हैं, एक मामला पुलिस कांस्टेबल दुन्गरा राम की हत्या का भी है. बैसला सिरे से सभी आरोपों को नकारते हैं. वे राजस्थानी पगड़ी सर पर बाँधे, जयपुर-आगरा रेल ट्रेक के निकट खटिया पर बैठे कहते हैं कि मुझे यहाँ से केवल दो ही चीज़ें हटा सकती हैं -- या तो बन्दूक कि गोली या गुर्जरों को आरक्षण देने के फैसले का पत्र. पहले के आन्दोलन कोर्ट के आदेश और सरकार से समझौते के बाद ख़त्म हुए थे. लगभग 63 साल के बैसला की शादी 14 की उम्र में हो गयी थी. उनकी एक बेटी सुनीता इन्डियन रेवेन्यु सर्विस में हैं और गोवा में आयकर विभाग में हैं. दो बेटे जय और दौलत सेना में अफसर हैं और एक बेटा निजी टेलीकाम कम्पनी में. उनक्की पत्नी का 1996 में निधन हो चुका है,लेकिन वे बेटों के बजे छोटे से कसबे हिंडौन में रहते है. 11 अप्रेल 2009 को वे जयपुर में बीजेपी की सदस्यता ले चुके हैं.
---प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान
02 जनवरी 2011 को प्रकाशित

Friday, December 24, 2010




ना कानून से ऊपर, ना नीचे -- डॉ. मोहम्मद हनीफ़
आस्ट्रेलिया की सरकार ने भारतीय डॉक्टर मोहम्मद हनीफ़ को आतंकवाद समर्थक आरोपों से बरी करके साबित कर दिया कि कोई भी कानून से ऊपर कोई नहीं है और न ही कानून से नीचे. आस्ट्रेलिया ने डॉ. हनीफ़ को मुआवज़े के रूप में भी करीब दस लाख डॉलर दिए हैं और माफ़ी भी मांगी है. यह मामला उतना सीधा है नहीं, जितना नज़र आता है. डॉ. हनीफ़ को आस्ट्रेलियाई सरकार ने बिना किसी कानूनी दस्तावेजों के 2 जुलाई से 27 जुलाई 2007 तक, यानी 25 दिन बिना किसी सबूत के गिरफ्तार किये रखा, जो आस्ट्रेलिया के इतिहास की सबसे लम्बी बिना कारण, बिना सबूत गिरफ्तारी थी. वे पहले इंसान थे, जिन्हें आस्ट्रेलिया में 2005 के आतंक विरोधी क़ानून के तहत पकड़ा गया था और उनकी गैरकानूनी गिरफ्तारी के 48 घंटों के भीतर ही वहां के पूर्व प्रधानमंत्री जान हार्वर्ड उनके पक्ष में सक्रिय हो उठे थे. पूरा भारत और यहाँ का तंत्र उनके साथ खड़ा था. 27 जुलाई को उन्हें रिहा करके 29 जुलाई को जबरन भारत रवाना कर दिया गया, जब उन्होंने भारत आने के पहले वहां पत्रकार वार्ता करनी चाही तो रोड़ा डाला. लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद उन्हें 13 महीने बाद 30 अगस्त २००८ को निर्दोष करा दिया गया. करीब ढाई साल बाद आस्ट्रेलिया की सरकार ने माफ़ी मांगी. डॉ. हनीफ़ के साथ ज्यादती करने के बाद डॉ साल में करीब 30 हजार भारतीय विद्यार्थियों ने आस्ट्रेलिया में पढाई छोड़ दी जिससे आस्ट्रेलिया को करोड़ों डॉलर की आर्थिक चपत लगी.

डॉ. हनीफ़ को 2 जुलाई 2007 को ब्रिसबेन एयर पोर्ट पर भारत आते वक्त गिरफ्तार किया गया था. इलजाम थे कि उन्होंने ग्लासगोव इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर ३० जून 2007 को हुए हमले के आरोपियों की मदद की थी. ये भी कि हमलावर उनके रिश्तेदार थे. सबूत ये लगाया कि डॉ. हनीफ़ बिना रिटर्न टिकट के भारत क्यों जा रहे थे? उनके मोबाईल की सिम कहाँ हैं? डॉ. हनीफ ने कहा कि उनकी पत्नी ने 6 दिन पहले ही सीजेरियन के जरिये बेटी को जन्म दिया है और उनके खाते में डॉलर नहीं है कि वे रिटर्न टिकट ले सकें. डॉ. हनीफ़ ने ये भी कहा कि उनकी मंशा पत्नी और बेटी को लाने की है और बेटी का पासपोर्ट बना नहीं है, तब भी जांच अधिकारी नहीं माने. उन्होंने आस्ट्रेलियाई सरकार को मानसिक वेदना देने, प्रताड़ना करने, बिना कारण जेल में निरुद्ध रखने, योग्य रोजगार के हक से वंचित रखने, पेशे में भारी आर्थिक हानि आदि का ज़िम्मेदार बताया था. अब वहां की सरकार कहती है कि अगर डॉ. हनीफ चाहें तो वापस आस्ट्रेलिया में नौकरी या प्रेक्टिस कर सकते हैं. लम्बी लड़ाई के बाद हनीफ ने आस्ट्रेलिया के बजाय दुबई में जाकर प्रेक्टिस कराना बेहतर समझा.

डॉ. हनीफ के मामले में जांच एजेंसियों की सारी पोल खुल गयी. उनके हर बयान की रेकार्डिंग की गयी थी, जिसमें उन्होंने सारी बातें सच सच बयान की थी, लेकिन अधिकारियों ने यही कहा कि हमारे पास सारे सबूत उनके खिलाफ हैं. असलियत ये थी कि कोई आरोप साबित ही नहीं हुआ. ना डायरी, ना सिम, ना ही टिकट सबूत बन पाया. धर्म के आधार पर उन्हें सताया गया था. भारत के विदेश मंत्री ने इस पर तीखी टिप्पणी की थी और आस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री को फोन पर चेताया था.

कर्नाटक के चिकमंगलुरु जिले के रहनेवाले डॉ. हनीफ के पिता स्कूल शिक्षक थे. 29 सितम्बर 1979 को जन्मे हनीफ 18 साल के थे, तब एक सड़क हादसे में उनकी मौत हो गयी थी. हनीफ ने कड़ी मेहनत से मेडिसिन की पढाई जारी रखी प्रथम श्रेणी में डिग्री ली. 2006 में वे आस्ट्रेलिया गए और साल भर बाद ही वे झूठे मामले में फंस गए जिससे बरी होने और मुआवजा पाने में उन्हें तीन साल से भी ज्यादा लगे. अगर भारत में किसी पर ऐसे आरोप लगते तो शायद पूरी जिन्दगी भी दोषमुक्त होने में कम पड़ जाती.
--- प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान
२६ दिसम्बर २०१०

Sunday, December 19, 2010



संक्रामक 'फेसबुक' के जनक मार्क जुकेरबर्ग
टाइम पत्रिका ने इस बार 'पर्सन ऑफ दी ईयर' ऐसे व्यक्ति को माना है, जो केवल 26 साल का है. खरबपति है. जिसने डिग्री नहीं ली और बीच में पढ़ाई छोड़ दी. जिसके जीवन से प्रेरित हॉलीवुड फीचर फिल्म बना चुका है. जिसका बचपन कंप्यूटर गेम खेलने में नहीं, बनाने में बीता. जो १६ की उम्र में अंगेजी के साथ फ्रेंच, हीब्रू, लेटिन, ग्रीक भी बोल-पढ़ लेता था. हार्वर्ड में पढ़ाई के दौरान उसने लोगों को जोड़नेवाली सोशल नेटवर्क वेबसाइट बनाई, जिसके 55 करोड़ सदस्य हैं. अगर इन सदस्यों का कोई देश होता तो चीन और भारत के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश होता. आज अमेरिका के 70 प्रतिशत लोग उससे जुड़े हैं. कई देशों में इस साइट पर रोक है. जी हाँ, हम फेसबुक के जनक मार्क जुकेरबर्ग की बात कर रहे हैं.

हार्वर्ड में पढ़ाई के दौरान कुछ छात्रों ने डेटिंग वेबसाइट की योजना बनाई थी. कनेक्टयू, डेटमेश, फेसस्मेश, मेशेबल नाम पर भी चिंतन हुआ. फाइनल हुआ कनेक्टयू. कैमरून विन्कलेवास और टेलर विन्कलेवास नामक दो भाई और भारतीय मूल के दिव्य नरेंद्र ने भी इसमें साथ दिया था. छात्रों में साइट खूब पसंद की गई. हाल ये हो गया कि लोड के कारण सर्वर जवाब देने लग जाता. आख़िर मार्क ने पढ़ाई छोड़कर 2 फ़रवरी 2004 को साइट लांच कर दी. नाम दिया गया फेसबुक. 6 साल में ही इस सोशल नेटवर्किंग साइट ने संक्रामक प्रसिद्धी पा ली. 55 करोड़ सदस्य, 75 भाषाएँ, 1600 कर्मचारी, वेल्युएशन में अरबों का मूल्यांकन. (जो हर रोज़ बढ़ता जाता है). फेसबुक को इसी साल 'बेस्ट इम्प्लायर' का सम्मान भी मिला है और फ़ोर्ब्स पत्रिका ने उन्हें दुनिया के सबसे धनी लोगों के साथ ही सबसे पावरफुल व्यक्तियों में शुमार किया है.

फेसबुक की लोकप्रियता के बाद मार्क पर कई आरोप लगे. कॉलेज के साथी विन्कलेवास बंधुओं ने आइडिया चुराने का मुकद्दमा लगा दिया, जिसमें कोर्ट के बाहर समझौता कर के 12 लाख शेयर और दो करोड़ डॉलर का भुगतान करना पड़ा. ये भी आरोप लगे कि इस साइट से गोपनीयता का हनन होता है. हैकर्स ने भी साइट पर डाका डाला. उन पर अनुचित आचार व्यवहार का इलज़ाम भी लगा. कुछ लोगों ने मार्क की तुलना बिल गेट्स से की तो किसी ने कहा कि कहा बिल गेट्स और कहाँ मार्क? किसी ने उन्हें स्टाइल आयकॉन माना तो किसी ने पूर्व प्रेमिका को बिच कहे जाने पर मार्क की धज्जियाँ बिखेरी. किसी ने कहा कि मार्क ने डोनेशन के नाम पर बड़ी धनराशि इधर-उधर की है. हालत ये हो गयी कि मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही उनकी एशियन मूल की प्रेमिका पर भी लोग तंज़ करने से बाज़ नहीं आए जो चार माह से उन्हीं के साथ, उन्हीं के घर में रह रही हैं. एक अक्तूबर को रिलीज़ होनेवाली हॉलीवुड फिल्म 'दी सोशल नेटवर्क' ने भी उनकी छवि को धक्का लगाया जिसमें इंगित किया गया था कि युवतियों की चाह में सोशल नेटवर्क साइट शुरू की गयी थी. मार्क को इस बारे में सफाई देनी पड़ी. 2009 में फेसबुक ने अपना नया डिज़ाइन किया गया होम पेज लांच किया था जिसका शीर्षक था ''आपके मन में क्या है?'' कहा जाता है कि यह स्टाइल ''ट्विटर से उड़ाया गया था.
बिल गेट्स और रिचर्ड ब्रोन्सन की तरह मार्क जुकेरबर्ग भी मानते हैं कि मालदार होने का पढ़ाई या डिग्री से कोई ताल्लुक नहीं. यहूदी परिवार में 14 मई 1984 को जन्मे मार्क ने फेसबुक पर अपने प्रोफाइल में लिखा है कि उनकी दिलचस्पी लोगों को आपस में जोड़ने में है. वे खुलेपन के हिमायती हैं और यही खुलापन लोगों को जोड़ता है. मार्क की तीन बहनों में से सबसे बड़ी बहन उन्हीं की कंपनी में कंज़्यूमर मार्केटिंग हेड हैं. फ़ोर्ब्स की अरबपतियों की सूची में मार्क का नाम 212 नंबर पर है और उनकी संपत्ति चार अरब डॉलर से ज़्यादा की आँकी गयी है.
- प्रकाश हिन्दुस्तानी-
Daily hindustan
19.12.2010

Friday, December 10, 2010





शीला की जवानी' देख लोग 'मुन्नी की बदनामी' भूल जाएँगे ? कैटरीना ने इस बेली डांस में अश्लीलता का सहारा नहीं लिया है. वैसे कैट अंग प्रदर्शन में कंजूसी नहीं करतीं. चालीस पार के हीरो उन्हें बैसाखी के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. वे फिल्मों में कामयाबी के शिखर पर जाने के लिए मौजूद हर सीढ़ी की महत्ता जानती हैं और किसी भी सीढ़ी का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करतीं.


बॉर्बी डॉल जैसी कैटरीना की 'युवावस्था'


यह कहना गुस्ताख़ी होगी कि कैटरीना कैफ़ 'आयटम' गर्ल हैं. बॉर्बी डॉल जैसी कैट आजकल एक्टिग भी करने लगी हैं. उन्हें फिल्मफेअर को छोड़कर तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं--स्टारडस्ट, ज़ी, स्क्रीन, आइफ़ा, गोल्डन कला आदि-आदि. वे 2010 की ख़ास न्यूज़मेकर हैं. महिला निर्देशिका फरहा ख़ान के डायरेक्शन में उन्होंने 'शीला की जवानी' गीत 'धक धक' गर्ल माधुरी दीक्षित को समर्पित किया है. हाल ये है कि 'मुन्नी की बदनामी' को भूल लोग 'शीला की जवानी' पर फिदा हैं. फिल्म इंडस्ट्री का ध्यान बॉक्स ऑफिस पर है और खुद मिस बॉर्बी को अपने करीयर में अच्छे दौर की उम्मीद है. ये कहना मुनासिब है कि 'तीसमार ख़ान' की असली हीरो वे ही हैं. (अक्षय की बीवी ट्विंकल इसकी को-प्रोड्यूसर हैं). फिल्म डायरेक्टर फरहा ख़ान का कहना है कि इस गाने में सौंदर्यबोध का ध्यान रखा गया है; कैटरीना का बेली डांस देख लोग शकीरा को भूल जाएँगे. कैट के लिए ब्राज़ील से खास ट्रेनर आए थे और महीनों वे शरीर शौष्ठव में लगीं रहीं. यह भी दावा है कि इस गाने में भौन्डापन नहीं है, कैट सुंदर, आकर्षक और प्यारी लगी हैं. कैमरा एंगल ऐसे हैं कि उनके डांस का हर स्टेप साफ़ नज़र आता है. (शीला तमिल फिल्मों की हॉट अभिनेत्री हैं.)
कैटरीना कैफ़ अंग प्रदर्शन में वे कंजूसी नहीं करतीं. पर्दे पर उनकी मौजूदगी का अर्थ है बॉक्स ऑफिस पर भीड़. चालीस पार के तमाम हीरो उन्हें बैसाखी के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. उनकी देहयष्टि, सौंदर्य और हिन्दी बोलने की अदा के दर्शक दीवाने हैं. डायरेक्टरों की आज्ञाकारी हैं. एक्शन सीन भी करने में डरती नहीं, इस कारण दुर्घटनाओं का शिकार भी होती हैं. कोमलांगी हैं सो सेट पर ही बीमार भी हो जाती हैं. डॉयलाग के अलावा कम बोलती हैं और दूसरों पर टीका नहीं करतीं. मीडिया से पर्याप्त दूरी रखती हैं. फिल्मों में कामयाबी के शिखर पर जाने के लिए मौजूद हर सीढ़ी की महत्ता जानती हैं और किसी भी सीढ़ी का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करतीं.


कैटरीना हिन्दी के अलावा मलयालम, तमिल और तेलुगु फिल्मों में भी अभिनय करती हैं. उनकी आनेवाली फिल्मों में तीस मार ख़ान, रॉकस्टार, दोस्ताना2, मेरे ब्रदर की दुल्हन, मैं कृष्णा हूँ, ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा और प्रभु देवा की एक तमिल फिल्म है. फिल्मों में उन्होंने यादगार रोल किए हैं, चाहे राजनीति की इंदु प्रताप हों या न्यू यार्क की माया, मैने प्यार क्यों किया और सींग इज़ किंग की सोनिया, रेस की सोफी हों या नमस्ते लंदन की जस्मीत मल्होत्रा, वेलकम की संजना या पार्टनर की प्रिया. उन्होंने कॉमेडी, एक्शन और रोमांटिक सभी तरह के रोल कामयाबी से किए हैं.

ग्रीक नाम कैटरीना का अर्थ है पवित्र. कश्मीरी पिता और ब्रिटिश माँ की सात बेटियों में से एक कैटरीना की पैदाइश 16 जुलाई 1984 को हांगकांग में हुई. माता पिता में अलगाव के बाद उनका बचपन हवाई और फिर लंदन में बीता. चौदह की उम्र में मॉडलिंग से शुरुआत की. डायरेक्टर केज़ाद गुस्ताद ने उन्हें बूम के लिए साइन किया और 2003 में 19 की कैट मुंबई आ गयीं. सलमान के परिवार के साथ रुकीं. फिल्में, मॉडलिंग, एड, लाइव शो, बॉर्बी डॉल लांचिंग जैसे सभी काम किए और फिर धीरे धीरे सलमान से दूरी बना ली. गासिप वालों की मानें तो सलमान कैट के साथ शादी का इंतज़ार कर रहे हैं. अभी भी कैट के मोबाइल बिल सलमान ख़ान के घर आते हैं और उनका पेमेंट भी सलमान की ओर से होता है.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान
12-12.2010

Sunday, December 05, 2010

अजीम प्रेमजी ने 8846 करोड़ का दान दिया. अजीब शख्स है !!! IPL टीम नहीं खरीदी, हवाई जहाज़ बेड़ा नहीं लिया, कैलेंडर नहीं छापे, फिल्में नहीं बनाईं, किसी आईलैंड की मिल्कियत नहीं चाही, मीडिया टायकून नहीं बना.... ढाई करोड़ दे पामेला एंडरसन से घर की झाड़ू भी नहीं लगवाई....क्या दूसरे धंधेबाज़, साहूकार, शराब व्यवसायी, भू माफ़ि...या शिक्षा लेंगे?

भारतीय बिल गेट्स अजीम प्रेमजी
विप्रो के प्रमुख अजीम प्रेमजी माइक्रोसाफ्ट के बिल गेट्स के रास्ते पर हैं. दो दिन बाद, 7 दिसंबर से प्रेमजी की संपत्ति में से 8, 846 करोड़ रुपये के बराबर संपत्ति अजीम प्रेमजी फाउंडेशन नामक दान खाते में ट्रांसफर होना शुरू हो जायेगी. विप्रो के उनके परिवार के 79.36 प्रतिशत हिस्से में से 8.6 प्रतिशत हिस्सा कम हो जाएगा. इससे शिक्षा की बेहतरी के लिए काम होगा. उनका मानना है कि दान ह्रदय की प्रक्रिया है, दिमाग या हाथों की नहीं. एक अच्छा काम सौ सलाहों से बढ़कर होता है और वे यह काम किसी मीडिया अटेंशन के लिए नहीं कर रहे. बिल गेट्स के 27 अरब डॉलर और वारेन बफेट के 31 अरब डॉलर दान के मुकाबले यह दस प्रतिशत भी नहीं है, लेकिन भारत में अभी तक इस से बढ़कर कोई दान नहीं हुआ.

अजीम प्रेमजी भारत की तीसरी सबसे बड़ी साफ्टवेयर कंपनी विप्रो (पुरानी वेस्टर्न इंडिया प्रोडक्ट्स) के प्रमुख हैं. उनका नाम भारत के सबसे मालदार लोगों में शुमार है, फ़ोर्ब्स ने उन्हें दुनिया के सबसे धनी 50 लोगों में शामिल किया है, एशियावीक उन्हें विश्व के सबसे पावरफुल लोगों में गिनता है. अपने पिता की 'साबुन तेल' कंपनी को 1980 में उन्होंने नए ज़माने की कंपनी में तब्दील कर दिया. ऐसी कंपनी, जिसने दुनिया का पहला 'एसईआई - सीएमएम (पीपल केपेबिलिटी मेच्योरिटी मॉडल) लेवल फाइव' हासिल किया. जो कंपनी अल्काटेल, नोकिया, सिस्को, एरिक्सन, नोर्टल जैसी कम्पनियों के साथ काम करती है और जीई के साथ मेडिकल सिस्टम्स के क्षेत्र में नयी-नयी खोजों में लगी है.

अजीम प्रेमजी गल्फ के शेख नहीं हैं, जिन्होंने तेल बेचकर खरबों कमाए हों. उन्होंने अपनी योग्यता से यह मंजिल हासिल की. बीते साल विप्रो का मुनाफा 4,593 करोड़ से ज्यादा का था. वे चाहते तो आईपीएल की टीम खरीदने, फ़िल्में बनाने, हवाई जहाजों का बेड़ा खरीदने, मीडिया टायकून बनने में 'कुछ' हिस्सा झौंक सकते थे, लेकिन उन्होंने शिक्षा का स्तर उठाने के लक्ष्य को चुना. यों भी वे दिखावे से दूर रहते हैं. हवाई जहाज में यात्रा करनी हो तो इकानॉमी (कैटल ?) क्लास में आते-जाते हैं. रुकने के लिए महंगे फाइव स्टार होटल स्युइट्स के बजाय अपनी ही कंपनी का गेस्ट हाउस चुनते हैं. वे ऐसे उद्यमी हैं, जिन्होंने साफ़-साफ़ कहा था कि मेरा बेटा मेरा उत्तराधिकारी नहीं हो सकता, उसमें अनुभव की कमी है. मंदी के दौर में उन्होंने अपना वेतन दस प्रतिशत घटाया, लेकिन दूसरे डाइरेक्टरों का वेतन कम नहीं किया.

अजीम प्रेमजी को बहुत बुरा लगा जब उन्हें वाल स्ट्रीट जर्नल ने 'दुनिया का सबसे धनी मुस्लिम इंटरप्रेन्योर' लिखा. उन्होंने आपत्ति की कि कभी भी किसी को सबसे धनी हिन्दू, सिख, यहूदी या बौद्ध नहीं कहा जाता. अमेरिका में आतंकी हमले के बाद अमेरिकी दूतावास ने उनसे अनुरोध किया गया कि वे 'इस्लामिक स्कूलों में आधुनिकता' का ज्ञान देने की पहल करें. उन्होंने साफ़ कहा कि सभी को क्यों नहीं; शिक्षा ही है जो सभी को आगे ले जा सकती है और यह सभी को मिलनी चाहिए. पद्मभूषण से सम्मानित प्रेमजी विप्रो को वैश्विक कंपनी के रूप में देखना चाहते हैं और चाहते है कि कम से कम टॉप टेन में तो उस का शुमार हो ही.

24 जुलाई 1945 को जन्मे अजीम प्रेमजी के पिता व्यवसाय में थे. उनके दादा का बड़ा कारोबार था और वे बर्मा में 'राईस किंग' माने जाते थे. देश विभाजन के वक़्त उनके दादा को पकिस्तान में केबिनेट मंत्री बनाने का प्रस्ताव खुद जिन्ना ने रखा था, लेकिन वे पकिस्तान नहीं गए. मुंबई में स्कूली पढ़ाई के बाद अजीम ने स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिग्री के लिए एडमिशन लिया था, लेकिन पिता के निधन के कारण वापस आना पड़ा. यह डिग्री उन्होंने बाद में हासिल की. मानद डी. लिट. सहित कई डिग्री उनके पास है, लेकिन उनका असली लक्ष्य है प्राइमरी शिक्षा को बेहतर बनाना. देखते हैं. अब कौन उनका अनुसरण करता है?
--प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान
5 दिसंबर 2010

Friday, November 26, 2010


हरभजन सिंह का 'दूसरा' रोल

अमिताभ बच्चन उनके फैन हैं, राहुल द्रविड़ उन्हें भारतीय गैरी सोबर्स कहते
हैं, धोनी उन्हें एक्सपर्ट गेंदबाज़ मानते हैं, पर वे अकसर विवादों में
घिरे रहते हैं. बार-बार उन्हें माफी माँगनी पड़ती है, कभी खिलाड़ी श्रीसंथ को
थप्पड़ मरने के कारण तो कभी रावण बनकर डांस करने के कारण. कभी किसी व्हिस्की
का विज्ञापन करने के लिए तो कभी न्यूज़ चैनल कैमरामैन को थप्पड़ मरने के लिए.
कभी भांगड़ा पर कमेन्ट के लिए तो कभी नस्लवादी टिप्पणी के लिए. कभी उनकी
फिटनेस चर्चा में होती है तो कभी काली पगड़ी. कभी उन्हें प्रतिबन्ध झेलना
पड़ता है तो कभी जुर्माना देना पड़ता है. उन्हें पद्मश्री देने की घोषणा होती
है और वे यह सम्मान लेने राष्ट्रपति भवन नहीं जा पाते. उन्हें किफायती गेंदबाज़
माना जाता है और वे चैम्पियंस ट्रॉफ़ी में पाकिस्तान के खिलाफ सबसे बुरा
प्रदर्शन करते हैं....लम्बे अरसे बाद उन्होंने अपनी अहमियत जताई है. हरभजन सिंह
उर्फ़ भज्जी ऐसे ही हैं.

हरभजन सिंह ने कई बार भारतीय टीम की लाज बचाई है. वे बल्ले के बादशाह
हैं. अब आशा है कि वे गेंद के साथ भी बादशाहत करेंगे. उनके विवादों पर इतना
ज्यादा लिखा गया, जितना उनके खेल पर नहीं. अब लोगों ने 'नए' हरभजन सिंह को
देखा है. ऐसे हरभजन जो भारत के सफलतम ऑफस्पिन बॉलर तो है ही, कामयाब बल्लेबाज़
भी हैं. उनके राईट हैण्ड बैटिंग का जादू हैदराबाद और अहमदाबाद में न्यूजीलैंड
के खिलाफ देखने को मिल चुका है. हैदराबाद में जहाँ उन्होंने काउंटर अटैक किये
वहीं अहमदाबाद में उन्होंने वीवीएस लक्ष्मण के 'गाइडेंस' में शतक बनाया. अब खुद
को बैट्समैन के फ्रेम में भी बनाये रखने के लिए मेहनत कराना होगी. शतकों के बाद
हरभजन ने कहा था कि सचिन उन्हें लगातार बैट्समैन की भूमिका के लिए प्रेरित
करते थे और सचिन के चेहरे पर आया संतोष ही उनका सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार रहा.
(२८०)

वास्तव में हरभजन ने क्रिकेट-दीक्षा बैट्समैन के रूप में ही ली थी. उनके
पहले कोच चरणसिंह बुल्लर थे. उनके निधन के बाद देवेंदर अरोरा उनके कोच बने और
उनसे लगातार कड़ी मेहनत कराते रहे. उसी का नतीजा है हरभजन का खेल. आज वे दुनिया
के दूसरे सबसे ज्यादा विकेट लेनेवाले ऑफस्पिनर हैं. वे ऐसे गेंदबाज़ हैं जिनकी
पकड़ गेंद पर बनी ही रहती है. उनकी गेंद फेंकने की स्टाइल (दूसरा) लाजवाब है.
उनके खेलने के तरीके और उपलब्धियों पर पुस्तकें लिखी जा सकती हैं. हरभजन के
लिए सभी मैदान अच्छे साबित हुए हैं. ईडन गार्डन, कोलकाता में उन्होंने 6
टेस्ट में 38 विकेट (23.10 ) लिए थे और चेन्नई के चेपौक में 5 टेस्ट में 34
(24 .25 )और वानखेड़े, मुंबई में 22 विकेट (19 .45 ) लिए है. दिलचस्प बात ये है
कि उन्होंने 60 प्रतिशत विकेट खुद कैच लेकर किये है. उनके खाते में पद्मश्री,
अर्जुन अवार्ड, आईसीसी टेस्ट अवार्ड 2009 और आस्ट्रेलिया, वेस्ट इंडीज़ और साउथ
अफ्रीका के साथ हुई सीरिज में 'मैन ऑफ़ दी सीरिज़' और आस्ट्रेलिया,
ज़िम्बाब्वे, वेस्ट इंडीज़, साउथ अफ्रीका और श्रीलंका के साथ हुए मैचों में
'मैन ऑफ़ दी मैच' घोषित हो चुके हैं.

3 जुलाई 1980 को जालंधर में मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे भज्जी के पिता का
निधन 2000 में हो गया था. वे पांच बहनों के इकलौते भाई हैं. अपने पिता की
भूमिका भी वे ही निभा रहे हैं. 2002 में उन्होंने अपनी तीन बहनों की शादी
करवाई. बाद में एक और बहन का विवाह भी उन्होंने ही कराया. उनके खुद की शादी की
अफवाहें बार बार उड़ती रहती हैं. गीता बसरा नाम की अभिनेत्री से भी उनके इश्क
के चर्चे चले, पर बात बनी नहीं. अब उन्हें कोई पंजाबी कुड़ी चाहिए.
--प्रकाश हिन्दुस्तानी
dainik hindustan 22.11.2010




भारतीय टेनिस का शहज़ादा
सोमदेव देववर्मन

टेनिस की तो शुरुआत ही 'लव' से होती है. सोमदेव देववर्मन को भी टेनिस से पुरानी मोहब्बत है. वे वेलेंटाइन्स डे के एक दिन पहले (13 फरवरी 1985 को) जन्मे. वे एक दीवाने की तरह खेलते हैं. एक चैम्पियन की तरह 145 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से हिट करते हैं. इसी के कारण वे एशियाई खेलों के इतिहास में जगह बना सके. एशियाई खेलों में कोई भी भारतीय पुरुष खिलाड़ी टेनिस सिंगल्स फाइनल तक नहीं पहुंचा था. वे वहां पहुंचे और स्वर्ण पदक भी जीता. वे डबल्स में सनम सिंह के साथ स्वर्ण जीत चुके थे. वे एक कांस्य पदक भी दिला चुके थे. इसके पहले कॉमनवेल्थ में भी वे स्वर्ण जीत चुके थे. ग्वानझू के एशियाई खेलों में मेंस सिंगल्स टेनिस में भारत को पहला गोल्ड मैडल दिलानेवाले सोमदेव देववर्मन ने ट्विट्टर पर लिखा था--''वास्तव में मैं नहीं जानता कि कैसे प्रतिक्रिता दूं, मुझे भारतीय होने पर नाज़ है.'' कुछ घंटों बाद उन्होंने फिर ट्विट किया --'' अभी भी लगता है कि यह हुआ ही नहीं!!!''


अब जनवरी में होनेवाली एटीपी एयरसेल चेन्नई ओपन टेनिस टूर्नामेंट में सोमदेव को सीधी एंट्री मिल गयी है. ऐसी एंट्री 1999 में लिएंडर पेस को मिली थी. अब अगली जनवरी में ही आस्ट्रेलियन ओपन भी है और मार्च में डेविस कप. सोमदेव इन तमाम मैचों में अपनी प्रतिभा दिखायेंगे. सोमदेव देववर्मन ने लिएंडर पेस, महेश भूपति और रोहण बोपन्ना की कमी कहलाने नहीं दी. बेहतरीन सर्विस, लाजवाब डिफेंसिव बेसलाइन खेल और शानदार ग्राउंड शोट्स के कारण वे टेनिस के शहजादे बन गए हैं. पहले लोग देववर्मन के नाम से केवल सचिन और राहुल देववर्मन को ही जानते थे, अब सोमदेव को भी इसी नाम से जानते हैं.

टेनिस की दुनिया में पांच शब्द बहुत बोले जाते हैं--'गुड शोट', 'बेड लक', और 'हेल'. सोमदेव इनमें से शुरू के दो अल्फाजों में ही यकीन करते हैं. ग्वानझू में उन्होंने उजबेकिस्तान के डेनिस उस्तोमिन को 6 -1 , 6 -2 से हराया था. मैच के वक़्त उस्तोमिन की विश्व रेंकिंग 40 थी और सोमदेव उनसे 66 रेंक नीचे 106 पर थे; लेकिन सोमदेव ने शानदार जीत हासिल की.

सोमदेव बचपन से ही टेनिस खेल रहे हैं, लेकिन 17 साल की अवस्था में, 2002 से वे टेनिस के बारे में गंभीर हुए. 2004 में उन्होंने ऍफ़-टू चैम्पियनशिप जीती. तब उनकी रेंकिंग हुई थी 666 पर. भारत से खेलते हुए वे अमेरिका पढ़ाई करने चले गए और खेल भी जारी रखा. 2007 और 2008 में वे एनसीएए के सिंगल्स टाइटल्स के विजेता बने. उन्हें विश्व का सबसे सफलतम कालेज स्तर का टेनिस खिलाड़ी माना गया. वे अपनी रेंकिंग में 94 नम्बर तक पहुँच चुके हैं. कामयाबी का श्रेय वे अपने कोच जैक वोलिकी को देते हैं.

गुवाहाटी में जन्मे सोमदेव को संगीत का शौक है. जाज़ उन्हें पसंद है और देव मैथ्यू का बैंड भी. दो भाई और एक बहन में वे सबसे छोटे है. ट्विट्टर पर उनके हजारों प्रशंसक हैं, लेकिन वे खुद महेश भूपति, रिया पिल्लै, बराक ओबामा और अपनी बड़ी बहन पालोमी को फालो करते हैं. अब अगले कुछ साल सोमदेव के ही हैं. अब दुनिया देखेगी कि टेनिस में यह खिलाड़ी क्या क्या गुल खिलाता है.
प्रकाश हिन्दुस्तानी
दैनिक हिन्दुस्तान
28 नवम्बर 2010

Friday, November 12, 2010







महाराष्ट्र के ट्रबलशूटर पृथ्वीराज चव्हाण


वे एयरोस्पेस इंजीनियर हैं और ज्योतिष को नहीं मानते. मैकेनिकल इंजीनियरिग की पढ़ाई बिट्स, पिलानी और केलिफोर्निया में की हैं, लेकिन हैं राजनीतिज्ञ. किसान-नेता के बेटे हैं और जीएम (जेनेटिकली मोडिफाइड) फूड्स के समर्थक. राजीव गाँधी की डिस्कवरी हैं और उन्हीं के आग्रह पर अमेरिका में मोटी तनख्वाह की नौकरी छोड़ वापस भारत आये और जुट गए कंप्यूटर के जरिये इक्कीसवीं सदी का भारत बनाने के मिशन में. भारतीय भाषाओँ में कंप्यूटर डाटा बेस तैयार कराना उनका मकसद था. लोक सभा में कराड़ से खड़ा कर दिया गया जो शरद पवार के आभामंडल का इलाका है. 1991, 1996 और 1998 में वे कराड़ से जीते और 1999 में हारे. 2002 में राज्यसभा के लिए चुने गए. मंत्री सहित अनेक बड़े पदों पर रहे. लोग कहते हैं कि वे मनमोहन सिंह के ट्रबलशूटर रहे हैं. अब वे महाराष्ट्र के ट्रबलशूटर हैं.

पीएमओ की बैक-बेंच से मुंबई की हॉट सीट तक का उनका सफ़र व्यक्तिगत निष्ठा, बेचूक वफादारी और राजनैतिक सूझबूझ का पुरस्कार है. वे कभी जननेता नहीं रहे. लेकिन वे केंद्र में एकमात्र ऐसे मंत्री थे, जिनके पास ५ महत्वपूर्ण विभाग एक साथ रहे. वे कांग्रेस के महासचिव रहे और जम्मू-कश्मीर, गुजरात और हरियाणा विधानसभा चुनाव में पार्टी के प्रभारी भी रहे. महाराष्ट्र के २५वे मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण पार्टी के प्रवक्ता भी रहे, लेकिन लोग कहते हैं कि वे पार्टी से ज्यादा प्रधानमंत्री के प्रवक्ता थे और दस जनपथ और सात आरसीआर के बीच के भरोसेमंद पुल भी. जब यूपीए की सरकार बनी तब उन्हें विश्वास था कि उन्हें वित्त मंत्रालय में पद मिलेगा, लेकिन मिला प्रधानमंत्री के सहायक मंत्री के रूप में. बहुत कम नेताओं को यह पद फलीभूत हुआ है, लेकिन चव्हाण ने यहाँ महती भूमिका निभाई. वे लो प्रोफाइल में रहे. पीएमओ सेक्रेटरी पुलोका चटर्जी थे, मीडिया एडवाइज़र संजय बारू, न्यूक्लियर डील पर चर्चा और फैसले जेएन दीक्षित और एमके नारायणन करते थे. इसके साथ ही कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा और अश्विनी कुमार की पीएमओ में उनसे ज्यादा चलती थी. उन्हें महत्वपूर्ण मौका मिला, जब न्यूक्लिअर डील जैसे संवेदनशील मामले में उन्होंने सरकार का पक्ष मज़बूती से रखा.

महाराष्ट्र के मराठा हार्टलैंड में शरद पवार की राजनीतिक हस्ती को वे चुनौती दे रहे हैं. कभी वे खुद और उनका परिवार शुगर लॉबी के करीबी थे. उनके पिता दाजीसाहेब आनंदराव चव्हाण इंदौर महाराजा के दीवान थे और बाद में कराड़ जाकर बस गए. 1957 से 1971 तक उनके पिता लगातार लोकसभा जीतते रहे. पं. नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिराजी के मंत्रिमंडल में रहे. 1974 में उनके निधन के बाद पृथ्वीराज की माँ श्रीमती प्रेमलता ताई 1977, 1984 और 1989 में उसी सीट से लोकसभा जीतीं. 1999 में उन्हें यहाँ से चुनाव में मात मिली. 1969 और 1978 में उनके परिवार ने इंदिरा गाँधी का साथ दिया था. 1996 में जब शरद पवार ने पार्टी में सोनिया का विरोध किया था, तब पृथ्वीराज चव्हाण ने केवल और केवल सोनिया गाँधी में ही भविष्य देखा था.

पृथ्वीराज चव्हाण को पवार समर्थक माना जाता था और इसी कारण उन्हें नरसिंहराव की सरकार में जगह नहीं. मिली थी. आज वे उन्हीं पवार के सबसे प्रबल राजनैतिक प्रतिस्पर्धी हैं. दिल्ली के सहारे वे कितने दिन राज कर पायेंगे और क्या आदर्श कायम करेंगे, वक़्त बतायेगा. मराठी कहावत है -- सतरा लुगड़ी आणि धापूबाई उघडी. यानी सत्रह साड़ियों के बावजूद नारी का शरीर खुला हुआ है--ये हाल है महाराष्ट्र के किसानों का. महाराष्ट्र में सत्ता की असली चाभी तो किसानों के पास ही है. मुंबई के मंत्रालय का असल रास्ता तो महाराष्ट्र के ग्रामीण अंचलों से ही होकर गुज़रता है.

--प्रकाश हिन्दुस्तानी


(दैनिक हिन्दुस्तान 14 nov.2010)

Wednesday, November 03, 2010


कार्निवाल के देश में गुरिल्ला राष्ट्रपति
जवानी में उन्होंने गुरिल्ला लड़ाई लड़ी, पकड़ी गयीं और सेना के टॉर्चर को सहा. तीन साल जेल में रहीं, रिहा हुई तो पढ़ाई करने की कोशिश की. पीएचडी करना चाही, पर न कर सकीं. अर्थशास्त्र की पढ़ाई की,
पर पीजी की डिग्री भी नहीं ले सकीं. ग्रीक थियेटर और डांस का शौक था, अधूरा रह गया. राजनीति में सक्रिय रहीं. एनर्जी मिनिस्टर बनीं. अच्छा काम किया. पहली दफा राष्ट्रपति पद की दावेदार रहीं और संघर्ष के बाद जीत गयीं. जी हाँ, आपने सही सोचा -- ये हैं ब्राज़ील की डिल्मा रौसेफ़. बुल्गारिया के प्रवासी की बेटी. चौदह की आयु में पिता को खो दिया, सोलह की होते-होते मार्क्सिस्ट एक्टिविस्ट बनीं. बीस की उम्र में शादी कर डाली. माँ बन सकीं तीस में, और शादी चल नहीं सकी. ब्राज़ील में फौजी तानाशाही के खिलाफ संघर्ष में जवानी खर्च कर डाली. तरह-तरह के जुल्म सहें, संघर्ष किये, घर-परिवार दांव पर लगा दिया और अंत में राजनीति में शिखर को छू लिया. वे अब फुटबाल और कार्निवाल, अमेजान और साम्बा के देश ब्राज़ील की पहली महिला राष्ट्रपति के रूप में पहली जनवरी को शपथ लेंगी.

ब्राज़ील की राष्ट्रपति चुनी जानेवाली डिल्मा रौसेफ़ के बारे में उनके विरोधी कहते हैं कि तानाशाही के खिलाफ लड़नेवाली वे खुद तानाशाह जैसी हैं. --''वे बेहद लोकतांत्रिक हैं अगर आप उनसे सौ फीसदी सहमत रहें!'' यह कहा है उनके एक करीबी राजनैतिक सहयोगी ने. उनके मूड के बारे में कहा जाता है कि वे पल में तोला, पल में माशा हो जाती हैं. ''ऐसा लगता है कि वे हर हफ्ते अपने दिमाग की डिस्क की फार्मेटिंग करती है". तभी तो उन्होंने ब्राज़ील के अबोर्शन कानूनों का समर्थन किया, लेकिन कहा कि मैं 'प्रो-लाइफ' एक्टिविस्ट हूँ. उन्होंने 'गे मैरेज' का विरोध किया, लेकिन कहा कि वे समलैंगिक सिविल राइट्स की हिमायत करती हैं क्योंकि यह मानव अधिकारों से जुदा मामला है!

एकॉनमिस्ट के रूप में डिल्मा रौसेफ़ की चुनौतियां भी कम नहीं. अर्थ व्यवस्था मज़बूत करना है. जीडीपी ऊपर ले जाना है, गरीबी-अमीरी की खाई कम करना है, ब्राज़ील में भी बिजली की भारी कमी है, चीनी महंगी हैं, स्लम्स बढ़ गए हैं, शिक्षा-स्वास्थ्य-शांति की दरकार है. देशी-विदेशी क़र्ज़ का बोझ है, अपराध बहुत ज्यादा हैं. सरकार में अभी वे एकछत्र नेता नहीं हैं. पूरा चुनाव ही उन्होंने 'गरीब, कामगार और युवा' वोटरों को रिझाते हुए लड़ा और जीता है, अब वे उनकी ओर आस लगाये हैं.

डिल्मा रौसेफ़ का चुनाव लड़ना भी दिलचस्प रहा. उन्होंने युवा वोटरों को रिखाने के लिए सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स का जमकर उपयोग किया. रोजाना लाखों ट्विट्स उन के पक्ष में होते रहे. टेलीफोन पर वियतनाम वार पर फ़िल्म बनानेवाले अमेरिकी फिल्मकार ओलिवर स्टोन सहित अनेक देशों के पत्रकार, कलाकार, लेखक प्रचार में मदद करते रहे. ओलिवर स्टोन की टेप की गयी आवाज़ लोगों को डिल्मा रौसेफ़ के पक्ष में वोट डालने की अपील कर रही थी.

१४ दिसंबर १९४७ को जन्मी डिल्मा रौसेफ़ ने जीवन में कभी हार नहीं मानी. वे एक बेटी की माँ और बच्चे की नानी हैं. परिवार की चाहत में उन्हें दो बार शादी करना पड़ी. जीवन के उत्तरार्ध में उन्हें एक्सीलर लिम्फोमा नामक कैंसर से भी लड़ना पड़ा. कीमोथेरेपी के कारण उन्हें महीनों इलाज कराना पड़ा. जिस कारण उनके सर के बाल झड़ गए और वे विग के सहारे काम चलाती रहीं. हेयर रिप्लेसमेंट और कॉस्मो डेन्टेस्ट्री करानेवालीं डिल्मा रौसेफ़ का दिल फौलाद का है और यही उनकी खूबी है.
---प्रकाश हिन्दुस्तानी

(दैनिक हिन्दुस्तान, 07 नवंबर 2010 को प्रकाशित)

Sunday, October 31, 2010




छोटे परदे की परियां
ब्यूटी विथ ब्रेन !

कौन है सबसे आकर्षक भारतीय न्यूज़ एंकर ?


कौन है आप की राय में सबसे आकर्षक भारतीय न्यूज़ एंकर? अंबिका आनंद या आभा सराफ़? श्वेता सिंह या सिक्ता देव? अफशा अंजुम या अवन्तिका सिंह? आरती पाठक या आफरीन क़िदवाई? अंजना कश्यप या शिरीन भान? बरखा दत्त या अलका सक्सेना? मिताली मुखर्जी या निधि राज़दान? निधि कुलपति या पाल्की उपाध्याय? ऋिटुल जोशी या रिचा अनिरूद्ध? सुरभि भूटानी या अंकिता बेनर्जी? ऋतु वर्मा या आरफ़ा ख़ानम? ज्योतिका ग्रोवर या मोनीषा ओबेरॉय? सागरिका घोष या सोनिया वर्मा?सलमा सुल्तान या अविनाश कौर सरीन? सरला माहेश्वरी या वीना सहाय? ... या कोई और? (हो सकता है कि मैं बहुत से महत्वपूर्ण नाम भूल रहा हूँ.)..... क्या वह इनमें से है या ....?कौन है आप की राय में सबसे आकर्षक भारतीय न्यूज़ एंकर?

ये वे न्यूज़ एंकर हैं, जिनके होते लोग अपना चैनल नहीं बदलते. भूत, भभूत, लंगोट, नाग-नागिन, रेप, मुन्नी जैसे मुद्दों पर टीआरपी बटोरने वाले चैनल भी इन एंकर के सामने टिक नहीं पाते. प्रकृति इन पर मेहरबान रही और ये लोग भी अपने प्रोग्राम के लिए कोई कोई कसर नहीं छोड़ते. विषय की गहरी समझ, मेहनत और लगातार अध्ययन के कारण ये टीआरपी की पर्याय बन गयी हैं.

इन में से कई मॉडलिंग कर चुकी हैं, कई ऐसी हैं जो फिल्मों में काम करके करोड़ों कमाने के प्रस्ताव को लात मार चुकी हैं, कई ऐसे हैं जिन पर करोड़पति-अरबपति डोरे डालते रहते हैं, लेकिन मीडिया के लिए प्रतिबद्ध ये प्रोफेशनल युवतियाँ टस से मास नहीं हुईं. भारतीय महिलाओं की एक तस्वीर ये भी है.

भारतीय टीवी चैनल की न्यूज़ एंकर दुनिया की सबसे आकर्षक न्यूज़ प्रेज़ेंटेटर हैं. ये भारतीय न्यूज़ एंकर किसी भी मामले में ब्रिटिश, आस्ट्रेलियाई, कनाडाई, अमेरिकी न्यूज़ चैनलों की न्यूज़ प्रेज़ेंटेटर से ज़रा भी कम नहीं हैं. भारत में भी तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मराठी, बांग्ला न्यूज़ प्रेज़ेंटेटर की अपनी खूबियाँ हैं. भारतीय न्यूज़ एंकर को अगर कोई कड़ी टक्कर दे सकता है तो वे पाकिस्तानी न्यूज़ एंकर ही हैं...लेकिन मैं यहाँ भारतीय और उनमें भी हिन्दी न्यूज़ चैनल की बात कर रहा हूं.

---प्रकाश हिन्दुस्तानी
३.११.२०१० ( रूप चतुर्दशी के पूर्व)

एंग्री यंग मैन ऑफ़ क्रिकेट

विराट कोहली को अब तक सभी एक बेहतरीन स्टेपनी के रूप में जानते थे. सचिन या युवराज की एक अच्छी स्टेपनी. जिस का खेलना इस बात पर निर्भर होता था कि टीम में कोई अनफिट तो नहीं है. लेकिन अब विराट कोहली ने अपने इस स्टेपनी वाले रोल को बदलकर रख दिया है. विराट कोहली ने हाल ही में आस्ट्रेलिया के खिलाफ १२१ गेंदों पर ११८ रनों का पहाड़ खड़ा करने के बाद 'ट्विट्टर' पर लिखा था--''ग्लेड विथ टीम्स विन,ग्रेट बेटिंग बाय युवी पाजी एंड सुरेश रैना. मेमोरेबल गेम फॉर मी.''
भारत की यह जीत ऐसी है, जिस के बारे में जब भी चर्चा होगी, विराट कोहली की चर्चा करना ज़रूरी होगा. विराट कोहली का क्रिकेट में आना और खेलना हमेशा संघर्षपूर्ण रहा है. क्रिकेट कि दुनिया में उन्होंने लगातार झटके खाए हैं. विराट अपने हौसलों से उन झटकों कोसे वे और मात देते रहे और आज वे ऐसे मुकाम पर हैं जहाँ से वे ज्यादा कद्दावर खिलाडी बनकर सामने आये हैं.
वह 2006 का दिसंबर था और दिल्ली के कोटला स्टेडियम में वे दिल्ली टीम की तरफ से रणजी ट्राफी के लिए कर्णाटक के खिलाफ खेल रहे थे. बुरी खबर थी कि उनके पिता प्रेम कोहली का 54 साल की उम्र में हार्ट अटैक आने से निधन हो गया था. ....सभी को लग रहा था कि आज शायद विराट की परीक्षा है, पूरी टीम शोक व्यक्त कर चुकी थी और यह जांबाज़ खिलाडी अड़ा था कि मैं बेटिंग करूंगा. विराट ने उस दिन बेटिंग की और 90 रन बनाकर दिल्ली कि टीम को जिताया.
विराट कोहली ने अंडर 17 , अंडर 19 और इमर्जिंग प्लेयर्स टूर्नामेंट्स में अपनी क्षमता का लोहा मनवाया है. अब वन डे मैचों में उन्हें अपनी योग्यता दिखाने का अवसर मिला है. अगर आंकड़ों की बात की जाए तो उनका प्रदर्शन हमेशा शेयर बाज़ार के ग्राफ जैसा रहा है --- अकसर ऊपर-नीचे होने वाला. जैसे शेयर बाज़ार अब जाकर बीस हजार के आसपास टिका है,कुछ वैसा ही हाल विराट कोहली का भी है. आईपीएल के फर्स्ट सीजन में वे फ्लाप रहे. तेरह इनिंग में 165 रन. सेकण्ड सीजन में ग्यारह इनिंग में केवल 215 रन. आइडिया कप वन डे में सचिन और सहवाग के चोटिल होने पर मौका मिला और ओपनिंग की तो केवल बारह रन पर आउट. सीरिज के दूसरे मैच में उन्होंने 37 रन बनाये और फिर चौथे मैच तक आते आते निर्णायक 54 रन बना लिए.यह वन डे मैचों में श्रीलंका के खिलाफ श्रीलंका में भारत की पहली जीत थी. ...लेकिन भाग्य की बात यह थी कि वे भारत में हो रहे वन डे में श्रीलंका के खिलाफ मैचों में चुने तो गए, पर खेल नहीं सके, क्योंकि सचिन और सहवाग फिट हो चुके थे.
विराट कोहली युवा खिलाडियों में अपनी ख़ास पहचान बना चुके हैं. उन्हें अभी मीलों का सफ़र तय करना है, उनमें अपार संभावना की बात कही जा रही है. कई लोग उन में सचिन की छवि देखते हैं. खेल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता वास्तव में सराहना के काबिल है.
--प्रकाश हिन्दुस्तानी (दैनिक हिन्दुस्तान 24 अक्टोबर २०१० से)


'पत्रकारिता' का जेम्स बॉन्ड : जुलियन असान्जे


अब अगर किसी को अमेरिका का विरोध करना हो तो इसके लिए अमेरिकी झंडा जलाने की ज़रुरत नहीं; अब लोग विरोध करने के लिए अमेरिकी झंडे की धुलाई करने लगते हैं. 'विकिलीक्स डॉट ओआरजी' के मुख्य प्रवक्ता और एडिटर इन चीफ जुलियन असान्जे ने यही किया. उन्होंने २२ अक्टूबर की शाम ५ बजे अपनी साईट पर ३ लाख ९१ हज़ार ८३२ क्लासीफाइड सीक्रेट डाक्यूमेंट्स अपलोड किये, जिनसे व्हाईट हाउस, सीआईए, एफ़बीआई, अमेरिकी प्रशासन और मीडिया जगत में हड़कंप है. असान्जे ने 'दी इराक वार लॉग्स' शीर्षक से दुनिया को इराक युद्ध में अमेरिकी सैनिकों, अमेरिकी और इराकी सरकार की भूमिका पर सवाल दर सवाल किये हैं. दस्तावेजों, ग्राफिक्स और नक्शों के जरिये बताया है कि कैसे युध्ह में नागरिकों का कत्ले आम, औरतों पर ज़ुल्म और अमानवीयता की गयी. इसमें १ जनवरी २००४ से ३१ दिसंबर २००९ तक युद्ध की असली झलक है. ये दस्तावेज़ जारी होने के बाद व्हाईट हाउस के सामने सवाल है कि अब क्या होगा? ऐसे सवाल तो सत्तर के दशक में वॉटरगेट काण्ड और नब्बे के दशक में मोनिका लेविंस्की प्रकरण के बाद भी नहीं उठे थे.

असान्जे कौन? 'पत्रकारिता' का जेम्स बॉन्ड या इंटरनेशनल मैन ऑफ मिस्ट्री? इंटरनेट एक्टिविस्ट या साइबर क्रिमिनल? सजायाफ्ता
हैकर या तहलका के महाबाप,विकिलीक्स का जनक! न जाने क्या क्या उपमाएं दी जा रही हैं असान्जे को. असान्जे कहाँ हैं, कोई नहीं जानता. ये लाइनें लिखे जाने के वक़्त अमेरिकी ख़ुफ़िया तंत्र उनकी खोज में लगा है.दुनिया भर में या तो असान्जे की वाह-वाही हो रही है या फिर उन्हें धिक्कारा जा रहा है! असान्जे देश देश भटक रहे हैं, कभी स्टॉकहोम, कभी बर्लिन, कभी लन्दन...उन्होंने अपने सुनहरे बाल रंगवा लिए हैं, वे पकड़े जाने के डर से क्रेडिट कार्ड का उपयोग नहीं कर रहे हैं, होटलों में नाम बदल बदल कर रुकते हैं, यही जानकारी मिल रही है. कभी उनके लेपटॉप और चोरी होने की सूचना आती है तो कभी कोई महिला उन पर बदचलनी का इल्जाम लगाती और फिर उसका खंडन करने कि खबर आती है. एक अकेला इंसान जिसने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर पूरी को हिलाकर रख डाला. कोई उनकी व्हिसल ब्लोइंग वेबसाईट को दान देना चाहता है तो कोई उसे प्रतिबंधित कराना चाहता है.

असान्जे के दस्तावेज़ बताते हैं कि अमेरिकी सेना ने युद्ध के नाम पर नागरिकों पर सितम ढाये, छः साल में १ लाख ०९ हज़ार ०३२ लोग मारे थे. ६६ हज़ार ०८१ नागरिकों कि मौत हुई, इराकी और मित्र राष्ट्रों की सेना के १५,१९६ और ३७७१ जवान मारे गए जबकि २३,९८४ विद्रोही मारे गए.
छः साल की पूरी अवधि में औसतन ३१ नागरिक रोजाना मारे गए. बेकसूरों की ह्त्या और यातनाओं की जानकारी अमेरिकी अधिकारियों और शीर्ष नेताओं को थी, लेकिन उन्होंने टार्चर, रेप और मर्डर के इन 'मामले की आपराधिक अनदेखी' की.

असान्जे ने १९९९ में लीक्स डोट ओआरजी और २००६ में 'विकिलीक्स डॉट ओआरजी' रजिस्टर कराई थी. १९९९ में तो उन्हें कोई बेहतर प्रतिसाद नहीं मिला, लेकिन २००६ में अपनी व्हिसल ब्लोइंग साईट रजिस्टर कराने के बाद उन्होंने साफ़ किया था कि हमारी कोशिश एशिया, पूर्व रशियन ब्लाक्स, मध्य पूर्व और रेगिस्तान अफ्रीकी देशों में हो रहे अमानवीय कामों के साथ ही पूरी दुनिया की सरकारों के अनैतिक कामों पर निगाह रखने की रहेगी. असान्जे ने एक हद तक अपनी भूमिका निभाई भी है. पहले उन्होंने करीब ९२००० गोपनीय दस्तावेज उजागर कर यह साबित कर दिया था कि पाकिस्तान का आई एस आई आतंकियों को खुली मदद कर रहा है और ये आतंकी अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों के खिलाफ लड़ाई में मदद दे रहे हैं. केन्या में फौज और पुलिस की दरिन्दगी को भी वे तथ्यों के साथ उजागर कर चुके हैं.


आज असान्जे के खिलाफ भी अनेक लोग काम कर रहे हैं. कई तो डरकर उन से दूर हो गए हैं और कई उन पर तानाशाहीपूर्ण रवैये का इलज़ाम लगाकर कन्नी काट गए हैं. अनेक लोग मानते हैं कि उनके काम से अमेरिकी हितों का नुकासा होगा और का मानते हैं कि उन्होंने लोकतान्त्रिक काम किया है और अमेरिका का लोकातान्रा इस से मज़बूत ही होगा. ब्रिटिश पत्रिका 'न्यू स्टेट्समैन' ने उनका नाम दुनिया के ५० सबसे प्रभावशाली लोगों में शुमार किया है और दुनिया को बदलनेवाले लोगों में उन्हें २३वे नंबर पर रखा है. उन्हें एमनेस्टी इंटर नेशनल मीडिया अवार्ड, इकानामिस्ट इंडेक्स आन सेंसरशिप मीडिया अवार्ड, सेम अडम अवार्ड आदि अनेक अवार्ड मिल चुके हैं.


आस्ट्रेलिया में १९७१ में जन्में जूलियन पॉल असान्जे के पास विश्वविद्यालय की कोई डिग्री नहीं है. माता पिता में अलगाव, प्रेमिका से अलगाव और बाधित पढ़ाई के बावज़ूद उन्होने अपनी जगह बनाई. विश्वविद्यालय और एक टेलीकॉम कंपनी की साइट हैक करने के मामले में वे फँस चुके हैं और जेल भी जा चुके हैं, जहाँ उन्हें २१०० डॉलर का ज़ुर्माना चुकाना पड़ा था. उन्हीं की तरह 'पेंटागान पेपर्स' लीक करनेवाले डेनियल एल्सबर्ग का कहना है --"असान्जे अमेरिकी डेमोक्रेसी की सेवा कर रहे हैं.."

-प्रकाश हिन्दुस्तानी
(दैनिक हिन्दुस्तान, ३१ अक्टोबर २०१० से)

Tuesday, September 14, 2010


NOSTALGIA :
डायरी के पन्ने : धर्मयुग के वे दिन

--प्रकाश हिन्दुस्तानी

...वह हिंदी दिवस था और 'धर्मयुग' में उप संपादक के रूप में मेरा पहला दिन. मेरे पास पैसे नहीं थे, नईदुनिया के साथी शेखर खांडेकर ने अपने फ्लेट में पनाह दी थी. शेखर तब इंडियन एक्सप्रेस में थे और ससून गोदी में उन का फ्लैट था. धर्मयुग में मेरे साथी थे--अशोक कुमार (इण्डिया टुडे) और अजंता चौधरी (अब देव). अजंता जी कुछ ही दिन में मुंबई छोड़ गयीं और काका हरिओम का साथ मिला.

डॉ. धर्मवीर भारती धर्मयुग के संपादक थे,बब्बर शेर की तरह. श्री मनमोहन सरल और श्री गणेश मंत्री सहायक संपादक. श्री राम मूर्ती, श्री राजन गाँधी मुख्य उप संपादक. वरिष्टों में थे सर्वश्री ओमप्रकाश, अवधकिशोर पाठक, आलोक जी .....'टाइम्स' ऑफ़ इन्डिया बिल्डिंग की चौथी मंजिल पर धर्मयुग था. एक तरफ इलेस्ट्रेटेड वीकली, दूसरी तरफ फ़िल्म पत्रिका 'माधुरी'. सामने 'फेमिना' और 'फिल्मफेयर'. तीसरी मंजिल पर 'नभाटा' था जिसमें विश्वनाथ जी, रामकृपाल, कमर वहीद नक़वी, विजय भास्कर सिंह...कुछ ही दिनों में आरके (रामकृपाल), नक़वी, सुहैला कपूर और हेमा (फेमिना),मुकुल पंड्या और डीवी हेगड़े (ईटी) से जमने लगी. हमने अपना एक स्टडी ग्रुप बनाया था. हफ्ते में एक बार कहीं बैठते और किसी एक किताब की चर्चा करते. कभी घूमने भी जाते, खंडाला-लोनावाला, इगतपुरी, या कहीं भी. बाद में मुकुल और हेमा ने शादी कर ली और युएस चले गए. डीवी हेगड़े ने अपने कंपनी बना ली, सुहैला ने फिल्मों-सीरियलों में काम शुरू किया और फेमिना छोड़ दिया. मैं 'नभाटा' में शिफ्ट हुआ. वहां आरके और नक़वी का साथ था ही, संजय पुगलिया भी आ गया. ....'धर्मयुग' के दिनों में एसपी सिंह, उदयन शर्मा, रवींद्र कालिया, नंदन जी, के योगेन्द्रकुमार लल्ला जी के खूब किस्से सुने-सुनाये जाते थे. राजीव शुक्ला कानपुर से धर्मयुग में इंटरव्यू देने आया था, लेकिन चुना नहीं जा सका. लिखित परीक्षा और तीन साक्षात्कार के दौरान राजीव से अच्छी दोस्ती हो गयी थी. बरसों बाद उस से मुलाकात हुई, तब तक राजीव बहुत बड़ा आदमी बन चुका था लेकिन वह दिल खोलकर मिला तो अच्छा लगा. उसने न पहनाने का कोई अभिनय नहीं किया, जैसा दीपक जैसे लोग करते रहते हैं.

..मैं 'धर्मयुग' में सब एडिटर पद का इंटरव्यू देने गया था. तब भारती जी ने पूछा--क्या क्या पढ़ते हो? मैने कहा--सभी कुछ. गुलशन नंदा से लेकर धर्मवीर भारती तक. अगला सवाल था --गुलशन नंदा कैसे लगते हैं? मैने कहा--दिलचस्प! मेरा चयन हो गया था. शायद मेरी साफ़गोई के कारण, बाद में मुझे गुलशन नंदा का इंटरव्यू करने का मौका भी मिला, वह 'दिनमान' में छापा भी था.
...
बाकी बातें फिर कभी....

Friday, September 03, 2010


मीडिया में भी 'आइटम'

-- प्रकाश हिन्दुस्तानी --
जकल मीडिया में भी 'आइटम' का चलन हो गया है ! आप के आस पास भी पत्रकार कम और 'आइटम' ज़्यादा होंगे। ज़रा गौर से देखें और अगर ना पहचान सकें तो ये रही उनकी पहचान :



--फिल्मों में 'आइटम' इसलिए डाले जाते हैं कि जनता फिल्म देखने आए. मीडिया में 'आइटम' इसलिए डाले जाते हैं कि एड. की भरमार हो सके.


--फिल्मों में 'आइटम' आम तौर पर नवागत नई-नई हीरोइनें करती हैं. मीडिया में 'आइटम' नये नये पत्रकार करते हैं, ज़रूरी नहीं की वह स्त्री ही हो, क्योंकि वहाँ सभी तरह के लोग 'आइटम' के लिए मौजूद हैं


--फिल्मों में 'आइटम' में जनता सिक्के उछालती है, मीडिया में 'आइटम' देख एड. देनेवाला गड्डियाँ उछालता है।
--फिल्मों में 'आइटम' से प्रोड्यूसर मालामाल होता है, मीडिया में 'आइटम' मीडिया का मालिक !

--फिल्मों में 'आइटम' एक या दो ही हो सकते हैं. मीडिया में 'आइटम' की ज़रूरत शाश्वत हो चली है. पूरा शो ही 'आइटम' होता है.

--फिल्मों में 'आइटम' करनेवाले 'भी' ठीकठाक कमा लेते हैं, मीडिया में 'आइटम' करनेवाले 'ही' ठीकठाक कमा पाते हैं.

--हरेक फिल्म में 'आइटम' करनेवाले नहीं होते / होतीं, जबकि हर मीडिया में 'आइटम' करनेवाले होने लगे हैं........
और अंत मे : --- फिल्मों के 'आइटम' में हीरोइन को कपड़े उतारने पड़ते हैं, मीडिया में 'आइटम' में कपड़े नहीं, चरित्र उतारना पड़ता है. फिल्मी 'आइटम' में चरित्र उतरने की मज़बूरी नहीं होती.
---प्रकाश हिन्दुस्तानी



3सितम्बर 2010
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